हिन्दू विधि की निम्न दो शाखायें हैं

(1) मिताक्षरा शाखा, और

(2) दायभाग शाखा ।

मिताक्षरा शाखा की निम्न चार उपशाखायें हैं-

(क) वाराणसी उपशाखा,

(ख) मिथिला उपशाखा,

(ग) महाराष्ट्र या बम्बई उपशाखा, और

(घ) द्रविड़ या मद्रास उपशाखा ।

मिताक्षरा और दायभाग

विज्ञानेश्वर की टीका ‘मिताक्षरा’ के नाम पर मिताक्षरा शाखा और जीमूत वाहन निबन्ध ‘दायभाग’ पर दायभाग शाखा का नामकरण हुआ।

:-मिताक्षरा शाखा का प्राधिकार-क्षेत्र (Jurisdiction) आसाम को छोड़ कर समस्त भारत है।

:-दायभाग शाखा का प्रभाव बंगाल और आसाम क्षेत्र में है।

:-मिताक्षरा शाखा का इतना सर्वोपरि प्रभाव है कि बंगाल और आसाम में दायभाग में अवर्णित विषयों पर मिताक्षरा ही मान्य है।

:-मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर ही टीका नहीं है बल्कि यह सभी स्मृतियों का सार प्रस्तुत करती है।

:-दायभाग का मूल रूप से विभाजन और उत्तराधिकार पर एक निबन्ध है।

Note:-एक समय यह विवादग्रस्त बात थी कि जीमूतवाहन, विज्ञानेश्वर के पश्चात् या कई शताब्दी पूर्व हुये हैं। परन्तु अब यह मान लिया गया है कि जीमूतवाहन का जन्म विज्ञानेश्वर से पहले हुआ था और विज्ञानेश्वर को जीमूतवाहन द्वारा प्रतिपादित कई सिद्धान्तों का ज्ञान था। काणे के अनुसार मिताक्षरा का लेखन-काल 1125-26 ए० डी०, और दायभाग का है 1090-1130 ए० डी० ।

:-दायभाग शाखा वाराणसी शाखा से विमत (Dissenter) शाखा है। वाराणसी सदैव ही ब्राह्मण पंडितों का गढ़ और ब्राह्मण कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा का दुर्ग भी रही है।

:-बंगाल शाखा ने उत्तरवादी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है।

:-मिताक्षरा शाखा (वाराणसी शाखा अब जिसकी उपशाखा मानी जाती है) कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी शाखा मानी जाती है और बंगाल शाखा उत्तरवादी और प्रगतिशील ।

दोनों शाखाओं में सैद्धान्तिक मतभेद –

मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं में कुछ विषयों पर मौलिक मतभेद हैं। मौलिक मतभेद निम्न विषयों पर हैं-

(क) उत्तराधिकार;

(ख) संयुक्त कुटुम्ब और सहदायिकी, एवं

(क) मिताक्षरा शाखा में उत्तराधिकार का सिद्धान्त है, रक्त द्वारा नातेदारी और दायभाग शाखा में आध्यात्मिक या धार्मिक लाभ।

:-मिताक्षरा में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार नातेदार (रक्त द्वारा) उत्तराधिकार में सम्पत्ति लेता है – यह पूर्णतया लौकिक सिद्धान्त है और वर्तमान हिन्दू उत्तराधिकार विधि का भी यही मूलभूत सिद्धान्त है (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956)। यदि इस सिद्धान्त को इस रूप में लागू किया जाये तो इसका तात्पर्य होगा कि पुत्र और पुत्री, भाई और बहन, माता और पिता या पौत्र और दोहिता एक साथ और बराबर हिस्सा लेंगे, क्योंकि वे दोनों बराबर निकटता के नातेदार हैं।

:-परन्तु मिताक्षरा ने इस सिद्धान्त को इस रूप में प्रतिपादित न करके दो अन्य नियमों द्वारा सीमित कर दिया है-ये नियम हैं-

(1) उत्तराधिकार से स्त्रियों का अपवर्जन, और

(2) गोत्रज को बन्धु के ऊपर अधिमान।

इन नियमों को हम दो उदाहरणों द्वारा समझ सकते हैं- यदि कोई हिन्दू पुत्री और पुत्र छोड़कर मरे तो नियम (1) के प्रतिपादित सिद्धान्त द्वारा समस्त सम्पत्ति पुत्र को उत्तराधिकार में मिलेगी और पुत्री को कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि वह स्त्री है। अब मान लिजिये, कोई हिन्दू एक पौत्र और दोहता को छोड़कर मरता है तो नियम (2) के प्रतिपादन द्वारा समस्त सम्पत्ति पौत्र को उत्तराधिकार में मिलेगी दोहते को कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि वह बन्धु है जबकि पौत्र गोत्रज है। इन नियमों के कारण ही मिताक्षरा उत्तराधिकार विधि प्रतिक्रियावादी विधि कहलाती है।

आध्यात्मिक या धार्मिक लाभ के सिद्धान्त के अन्तर्गत वह नातेदार जो अनुष्ठान द्वारा मृत की आत्मा को अधिकतम शान्ति दे सकता है, सम्पत्ति का उत्तराधिकार होता है। यह निर्भर करता है कि पिण्डदान के धार्मिक सिद्धान्त पर। जो भी नातेदार पिण्डदान द्वारा मृतक की आत्मा को अधिकतम शान्ति प्रदान कर सकता है, वही सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होगा।

:-यद्यपि दायभाग उत्तराधिकार विधि का सिद्धान्त लौकिक न होकर आध्यात्मिक है, दायभाग उत्तराधिकार विधि उदार है। कुछ स्त्रियां और बन्धु भी उत्तराधिकार में सम्पत्ति पा सकते हैं। फिर दायभाग के बन्धु सम्बन्धी नियम भी भिन्न हैं।

:-वर्तमान हिन्दू विधि में जहां तक उत्तराधिकार का प्रश्न है, हिन्दू विधि की शाखाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत सब हिन्दुओं पर एक ही उत्तराधिकार विधि लागू होती है। उत्तराधिकार विधि में इन शाखाओं का महत्व केवल इतना रह गया है कि मिताक्षरा हिन्दू की संयुक्त परिवार की सम्पत्ति पर अब भी उत्तरजीविता का सिद्धान्त लागू होता है; परन्तु कुछ परिस्थितियों में उस सम्पत्ति का भी उत्तराधिकार द्वारा न्यागमन होता है।

मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं में दूसरा मौलिक अन्तर है, संयुक्त कुटुम्ब के सम्बन्ध में। मिताक्षरा शाखा पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र के संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में जन्मतः अधिकार को प्रतिपादित करती है। इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि जन्म लेने के साथ ही पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में हित प्राप्त हो जाता है जिस हित का पृथक्करण वे कभी भी विभाजित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में इस सिध्दांत के प्रतिपादन का अर्थ है, जन्म के साथ ही संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में पुत्र का पिता के बराबर हित। विधिशास्त्र में यह हिन्दू विधि-व्यवस्था का विलक्षण योगदान है। कहीं भी कोई व्यक्ति जन्म के साथ सम्पत्ति का अधिकारी नहीं होता है। इस सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है दूसरा सिद्धान्त उत्तरजीविता का सिद्धान्त । इस सिद्धान्त के अन्तर्गत संयुक्त कुटुम्ब की सम्पदा का न्यागमन उत्तराधिकार द्वारा नहीं बल्कि उत्तरजीविता द्वारा होता है। उदाहरणार्थ, किसी सहदायिकी के मरने पर संयुक्त कुटुम्ब की संपदा में उसके हित का न्यागमन अन्य जीवित सहदायिकों को उत्तरजीविता के रूप में होता है।

:-दूसरी ओर, दायभाग शाखा दोनों ही सिद्धान्त, पुत्र के जन्मतः, अधिकार और उत्तरजीविता के अधिकार को मान्यता नहीं देती है। दायभाग शाखा के पिता के जीवन-काल में पुत्र को किसी भी सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं है। दायभाग शाखा के किसी भी हिन्दू के मरने पर उसकी समस्त सम्पत्ति उत्तराधिकार द्वारा उसके उत्तराधिकारियों को मिलती है।सहदायिकी दोनों शाखाओं में मान्य है, परन्तु दोनों में अन्तर है।

:-मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत पुत्र के जन्म के साथ ही सहदायिकी का प्रादुर्भाव होता है,

:-जबकि दायभाग शाखा में सहदायिकी का प्रादुर्भाव होता है, पिता की मृत्यु के पश्चात् जब पिता की सम्पत्ति पुत्रों को उत्तराधिकार में मिलती है, तब पुत्र एक दूसरे के सहदायिकी होते हैं और उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति उनकी सहदायिकी सम्पत्ति होती है।

:-मिताक्षरा शाखा में संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति के सिद्धान्त का तात्पर्य है कि सब सहदायिकाओं का सम्पत्ति में एकरूप स्वामित्व है और उनके स्वाधीनम् (कब्जा) की ऐक्यता है। दूसरे शब्दों में, विभाजन के पूर्व कोई भी सहदायिकी यह नहीं कह सकता है कि संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में वह अमुक भाग का भागीदार है। प्रत्येक सहदायिकी का हित दोलायमान होता है। कुटुम्ब में सहदायिकी के जन्म होने पर घट जाता है और किसी सहदायिकी की मृत्यु होने पर वह बढ़ जाता है।

:-परन्तु दायभाग शाखा में ऐसा नहीं है। प्रत्येक सहदायिकी का हित उत्तराधिकार के समय ही निश्चित होता है, उसके दोलायमान होने की कोई भी सम्भावना नहीं है। अतः दायभाग शाखा में संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में एक रूप स्वामित्व का सिद्धान्त मान्य नहीं है, अपितु स्वाधीनम् की ऐक्यता का नियम वहां भी मान्य है। मिताक्षरा शाखा के उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त द्वारा यह नियम भी जन्म लेता है कि साधारणतया कोई भी सहदायिकी (चाहे वह पिता हो या कर्ता हो) संयुक्त परिवार की सम्पदा का अन्य संक्रामण नहीं कर सकता है। दायभाग शाखा में ऐसा कोई निबन्ध नहीं है। प्रत्येक सहदायिकी जब भी चाहे, जिस भांति भी चाहे, अपने हित का अन्य संक्रामण कर सकता है।’संहिताबद्ध हिन्दू विधि संयुक्त परिवार की विधि पर परोक्ष रूप से प्रभाव डालती है। अत: इस विषय में हिन्दू विधि की शाखाओं का महत्व अब भी उतना ही है जितना पहले था।

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *