शून्य विवाह एवं शून्यकरणीय विवाह (Void and Voidable Marriage) :-
शून्य विवाह का अर्थ– एक ऐसा विवाह है जो कानूनों के तहत गैर कानूनी या अमान्य है और जो शुरुआत से ही अमान्य होता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य विवाह कोई विवाह नहीं है। ऐसे विवाह को विवाह केवल इस कारण कहते है कि दो व्यक्तियो ने विवाह के सभी अनुष्ठान पूरे किये है। इसमे पक्षकारों के बीच किसी प्रकार के अधिकार, कर्तव्य और दायित्वो का जन्म नहीं होता। ऐसे विवाह को न्यायालय की डिक्री द्वारा शून्य घोषित कराना आवश्यक नहीं है।
शून्य विवाह के आधार (Grounds of Void Marriage) – हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार इन आधारों पर विवाह को शून्य माना जाता है.
1) धारा 5 (1)- विवाह के समय किसी पक्षकार का पति या
ⅱ) धारा 5 (5)- पक्षकार एक दूसरे के सपिण्ड है।
ii) धारा 5 (4)- पक्षकारों के प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी।
यदि कोई इन शर्तों में से किसी एक का उल्लंघन करता है तो वह विवाह शून्य होगा। किसी भी पक्षकार के विरुद्ध पेश की गई याचिका पर अकृतता की डिक्री द्वारा विवाह को शून्य घोषित किया जा सकेगा।
केस– परमास्वामी बनाम सोरनाथाम्मल (1968)- हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 सोरनाथाम में विवाह शून्य घोषित कराने की याचिका विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई भी एक दायर कर सकता है, अन्य व्यक्ति नहीं।
केस- वीरेंद्र बनाम कमला (1995) पति द्वारा दूसरी पत्नी ले आने पर विवाह अधिनियम में पहली पत्नी के लिए कोई अनुतोष नहीं है लेकिन वह विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम में दूसरे विवाह के शून्य घोषित कराने का वाद ला सकती है।
शून्यकरणीय विवाह (Voidable Marriage)- शून्यकरणीय विवाह ऐसा विवाह होता है जो शुरूआत से शून्य नहीं होता। शुरुआत से इस विवाह को विधिमान्यता प्राप्त होती है लेकिन न्यायालय द्वारा अकृतता की डिक्री प्रदान करने के बाद इस प्रकार का विवाह शून्यकरणीय हो जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 12 के अनुसार शून्यकरणीय विवाह अकृतता की डिक्री पारित होने से पहले वैध और मान्य विवाह रहता है। यदि विवाह के दोनों पक्षकार जीवित है और विवाह को शून्यकरणीय घोषित कराने की कार्यवाही नहीं करते है तो विवाह विधि द्वारा मान्य होगा। ऐसी अवस्था में पक्षकारों के पति-पत्नी के रूप में वैधानिक संबंध होते हैं और पक्षकारो मे अधिकार कर्तव्य और दायित्वो का जन्म होता है।
शून्यकरणीय विवाह के आधार (Grounds of Voidable Marriage)– हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 12 में शून्यकरणीय विवाह के निम्र आधार बताए गए है
क) प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोत्तर संभोग न होना।
ख) प्रत्यर्थी का विवाह के समय-
1) चित्तविकृति के कारण सहमति देने में असमर्थ होना।
2) मानसिक विकार से पीड़ित होने के कारण वह संतानोत्पत्ति के अयोग्य हो।
3) उन्मत्तता या मिर्गी का दौरा बार-बार पड़ता है।ग) प्रत्यर्थी की सहमति बल प्रयोग या या कपट से प्राप्त की हो।
घ) स्त्री का विवाह के समय किसी भिन्न व्यक्ति द्वारा गर्भवती होना।
केस पारसी बनाम वासुदेव (1968) शून्यकरणीय विवाह की संतान शून्यकरणीय की डिक्की पारित होने के बाद भी धर्मज रहेगी।
केस- सोमदत्त बनाम राजकुमार (1986)- यदि विवाह के समय वधू या वर की आयु छिपाई गई तो वह धारा 12 में कपट माना जायेगा और इस आधार पर विवाह को शून्यकरणीय ठहराया जा सकेगा।
शून्य और शून्यकरणीय विवाह में अंतर-
1) शून्य विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है जबकि शून्यकरणीय विवाह जब तक डिक्री द्वारा विवाह विघटित न हो जाए, मान्य विवाह है।
2) शून्य विवाह में पक्षकारों के आपसी अधिकार कर्तव्य और दायित्वो का जन्म नहीं होता जबकि शून्यकरणीय विवाहमें पक्षकारों में आपसी अधिकार, कर्तव्य और दायित्वो का जन्म होता है।
3) शून्य विवाह की पत्नी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में भरण पोषण का प्रार्थना पत्र दायर नहीं कर सकती जबकि शून्यकरणीय विवाह की पत्नी ऐसा कर सकती है।
4) शून्य विवाह के दोनों पक्षकार बिना डिक्री के पारित हुए बिना भी दूसरा विवाह कर सकते है जबकि शून्यकरणीय विवाह के पक्षकार ऐसा नहीं कर सकते यदि उनमें से कोई ऐसा करेगा तो वह द्विविवाह का दोषी होगा।
5) शून्य विवाह का दंड अधिनियम की धारा 18 (2) में वर्णित है जबकि शून्यकरणीय विवाह में दंड के लिए प्रावधान नहीं है।
6) शून्य विवाह में पति-पत्नी के बीच विधिक संबंधों को जन्म नहीं होता जबकि शून्यकरणीय विवाह में पक्षकार पति- पनी की प्रास्थिति प्राप्त करते हैं।
7) शून्य विवाह के आधार हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के खंड (1) (4) और (5) में दिए गए हैं जबकि शून्यकरणीय विवाह के आधार हैं- नपुंसकता, अस्वस्थ मस्तिष्क, बल या कपट से सहमति प्राप्त करना और स्त्री का विवाह के समय गर्भवती होना।
शून्य या शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न संतान का अधिकार-हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 16 में प्रावधान है कि शून्य या शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न संतान धर्मज होगी। ऐसी संतान को माता-पिता की स्वयं अर्जित और पैतृक दोनों प्रकार की संपत्ति में सभी अधिकारों का हक है। धारा 16 खंड (3) में कहा गया है कि ऐसी संतानों का उनके माता-पिता के अलावा किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति पर अधिकार नहीं होगा।
केस- शांताराम बनाम दुर्गाबाई (1987)- बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी संतान पिता की पृथक संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकती है लेकिन संयुक्त परिवार में पिता के हित में उसे कोई अंश प्राप्त नहीं होगा।
केस- संतराम बनाम दागूबाई (1992)- शून्य या शून्यकरणीय विवाह की वही संताने धर्मज होती हैं जो विवाह धारा 11 और 12 में आते हैं। यदि विवाह वैवाहिक अनुष्ठान में में त्रुटि के कारण शून्य है तो विवाह की संताने अधर्मज ही रहेंगी।