मुता विवाह (Muta Marriage) :-

अर्थ

मुता शब्द का अर्थ है- उपयोग या उपभोग।

हेफनिंग– कानून में इसको आनंद के लिए विवाह कहा जा सकता है।

यह एक अस्थायी विवाह होता है जिसमें पत्नी को दी जाने वाली मेहर की धनराशि निश्चित रहती है और विवाह का समय भी निश्चित रहता है। यह शिया विधि में अशना अशरिया में मान्य है। सुन्नी विधि इसे मान्यता नहीं देती और ऐसे विवाह सुन्नी विधि में शून्य होते है।

मुता विवाह का ऐतिहासिक आधार-इस्लाम के उदय से पहले जब अरब निवासी व्यापार या युद्ध करने जाते थे तब मुता विवाह कर लिया करते थे लेकिन इसमे समय और मेहर तय करके सुधार किया गया। हालांकि मुता विवाह शिया विधि में वैध विवाह माना जाता है लेकिन ऐसे विवाह का भारत में बहुत कम प्रचलन है।

आवश्यक तत्व-

1) अवधि निश्चित होनी चाहिए। चाहे एक दिन, एक वर्ष या कई वर्ष की हो।

2) मेहर की धनराशि का उल्लेख होना चाहिए। जब अवधि और मेहर निश्चित हो जाए तो संविदा वैध है।

3) पत्नियों की संख्या चार तक सीमित रहे मुता पर यह नियम लागू नहीं होता।

कानूनी प्रभाव

1) पक्षकारों के बीच पारस्परिक उत्तराधिकार का जन्म नहीं होता।

2) ऐसे विवाह की संतान वैध होती है और माता-पिता दोनों से उत्तराधिकार पाती है।

3) मुता विवाह में तलाक मान्य नहीं होता। पति यदि चाहे तो शेष अवधि का दान कर सकता है जिसे हिबा ई मुद्दत कहते हैं।

यदि पत्नी तय समय से पहले पति को त्याग देती है तो पति मेहर का कुछ हिस्सा कम कर सकता है।

4) पत्नी भरण पोषण की री हकदार नहीं होती। परंतु दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में भरण पोषण का दावा कर सकती है।

5) पत्नी के लिए पति निवास स्थान का प्रबंध करने के लिए बाध्य नहीं है।

6) मुता विवाह में पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी चार महीने दस दिन तक और यदि गर्भवती हो तो बच्चे के जन्म के समय तक इद्दत पालन करेगी।

7) नियत अवधि की समाप्ति पर या आपसी सहमति से या पति-पत्नी में से किसी की मृत्यु हो जाने पर स्वयं ही विवाह विच्छेद हो जाता है।

8) यदि विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाए तो पत्नी पूरे मेहर की हकदार होती है और यदि न हो तो आधे मेहर की हकदार होती है।

9) मुता विवाह में विवाहित पत्नियों की संख्या की कोई सीमा नहीं है।

निकाह और मुता विवाह में अंतर-

1) मुता एक सीमित अवधि के लिए अस्थायी विवाह है और अवधि बीतने पर स्वयं समाप्त हो जाता है जबकि निकाह एक स्थाई विवाह है जो मृत्यु या तलाक तक कायम रहता है।

2) मुता को केवल शिया विधि में मान्यता प्राप्त है, सुन्त्री विधि में नहीं जबकि निकाह को मुस्लिम विधि की दोनों शाखाओ में मान्यता प्राप्त है।

3) मुता विवाह पति-पत्नी को उत्तराधिकार के आपसी अधिकार नहीं देता जबकि निकाह में पति-पत्नी को पारस्परिक उत्तराधिकार का अधिकार होता है।

4) मुता विवाह में तलाक मान्य नहीं होता जबकि निकाह में तलाक मान्य होता है।

5) यदि मुता विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त नहीं हुआ तो पत्नी केवल आधे मेहर की हकदार होती है जबकि निकाह में चाहे विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो या नहीं पत्नी को पूरा मेहर मिलता है।

6) मुता में पत्नी भरण पोषण की हकदार नहीं होती जबकि निकाह में पत्नी भरण पोषण की हकदार होती है।

7) मुता विवाह में मेहर का तय किया जाना जरूरी है यदि मेहर की धनराशि तय नहीं है तो मुता विवाह शून्य माना जाता है जबकि निकाह में ऐसा नही है।

केस- शोहरत सिंह बनाम मुसम्मात जाफरी बीबी (1915)– अगर निश्चित समय के लिए मुता विवाह करके पुरुष और स्त्री पति-पत्नी के रूप में उस अवधि के बीत जाने पर भी साथ रहते जाएं तो साक्ष्य के अभाव में यह माना जाएगा कि विवाह की अवधि का विस्तार कर दिया गया।

केस- शहजादा खानम बनाम फक्रजहां (1953) जीवनपर्यन्त मुता जिसमें अवधि निश्चित नहीं है। उसे निकाह मान लिया जायेगा।

केस- अमानुल्ला हुसैनी बनाम राजम्मा (1977)- शिया पुरुष किताबिया (ईसाई और यहूदी) और पारसी स्त्री से मुता विवाह कर सकता है लेकिन हिंदू या किसी अन्य धर्म की स्त्री से नहीं कर कर सकता। लेकिन मुस्लिम स्त्री किसी गैर मुस्लिम से मुता विवाह नहीं कर सकती।

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