:-हिन्दू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 में ऐसे व्यक्तियों के लिए जो कि अवयस्क हैं अर्थात् जिन्होंने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है, के शरीर एवं सम्पति की देखरेख के लिए ‘संरक्षक‘ (guardians) की व्यवस्था की गई है। अधिनियम में चार प्रकार के संरक्षक बताये गये हैं-

1. नैसर्गिक संरक्षक (Natural guardian);

2. वसीयती संरक्षक (Testamentary guardian);

3. वस्तुतः संरक्षक (De-facto guardian); एवं

4. न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक (Guardian appointed by the Court)।

:-यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी अविभक्त हिन्दू कुटुम्ब की सम्पति में अवयस्क के अविभक्त हित के लिए संरक्षक की नियुक्ति नहीं की जा सकती है। ( श्रीमती श्वेता बनाम धर्मचन्द, ए.आई. आर. 2001 मध्यप्रदेश 23 )

नैसर्गिक संरक्षक

अधिनियम की धारा 6 में नैसर्गिक संरक्षक के बारे में प्रावधान किया गया है।संरक्षक को कोटि में तीन व्यक्तियों को रखा गया है-

1.पिता

2.माता

3. पति

:-इस प्रकार किसी अवयस्क के नैसर्गिक (प्राकृतिक) संरक्षक केवल पिता, माता एवं पति ही हो सकते हैं। इसके अनुसार-

(क) लड़के या अविवाहित लड़की की दशा में पहले पिता एवं तत्पश्चात् माता संरक्षक होती है तथा पाँच वर्ष से कम आयु के अवयस्क की संरक्षक सामान्यतः माता होती है।

(ख) अधर्मज लड़के या अधर्मज अविवाहिता लड़की की संरक्षक पहले माता एवं तत्पश्चात् पिता होता है।

(ग) विवाहित लड़की का संरक्षक उसका पति होता है।

:-लेकिन सौतेला पिता एवं सौतेली माता अवयस्क का संरक्षक नहीं हो सकती है।

:-संरक्षकता निम्नांकित दो अवस्थाओं में समाप्त हो जाती है, अर्थात्

:-जब ऐसा व्यक्ति अर्थात् संरक्षक हिंदू नहीं रह जाता है, या

:-वह संसार का त्याग कर वानप्रस्थ , यति या सन्यासी हो जाता है।

ई.एम. नाडार बनाम श्रीधरन (ए.आई.आर., 1992 केरल, 200) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पिता अवयस्क सन्तान से अलग रहते हुए भी उसका नैसर्गिक संरक्षक बना रहता है।

:-जब पिता धर्म संपरिवर्तन के कारण हिन्दू नहीं रह जाता है तब माता अवयस्क की नैसर्गिक संरक्षक हो जाती है। (विजय लक्ष्मी बनाम पुलिस निरीक्षक, ए.आई.आर.,1991, मद्रास, 243)

:-चन्दा बनाम प्रेमनाथ (ए.आई. आर. 1969, दिल्ली, 283) के मामले में पांच वर्ष से कम आयु के अवयस्क व्यक्ति को नैसर्गिक संरक्षक माता को माना गया है।

:-लेकिन कालान्तर में कई निर्णयों में यह मान लिया गया है कि यदि पिता पास आय के पर्याप्त साधन नहीं हैं और वह अवयस्क की समुचित देखरेख नहीं कर सकता है तो अवयस्क के हित एवं कल्याण की दृष्टि से माता उसकी नैसर्गिक संरक्षक हो सकती है। (आर. वेंकट सुब्बैय्या बनाम एम. कमलाम्मा, ए.आई.आर. 1992, आन्ध्र प्रदेश, 369, श्रीमती गीता हरिहरन बनाए रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ए.आई.आर. 1999 एस.सी., 1149 तथा सुजाता बनाम सी. थोमस, ए.आई.आर ठ, मद्रास, 6)

:-श्रीमती किरण ए. लखानी बनाम श्री अजीत एच. लखानी (ए.आई. आर. 2006 एन.ओ.सी. 276 मुम्बई) के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा एक 13 वर्षीय पुत्री को माता की अभिरक्षा में देना उचित समझा गया, क्योंकि-

(क) माता के पास आय के पर्याप्त स्रोत थे,

(ख) बालिका का सर्वाङ्गीण विकास माता के पास रहने से अधिक सम्भव था, एवं

(ग) माता पुत्री की शिक्षा-दीक्षा पर धन व्यय करने में सक्षम थी।

:-नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ:-

नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ को दो शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जा सकता है-

1. अवयस्क के शरीर के बारे में अधिकार, एवं

2. अवयस्क की सम्पत्ति के बारे में अधिकार।

:-जहाँ तक अवयस्क के शरीर के बारे में नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियों का प्रश्न है, अधिनियम की धारा 8 (1) में यह कहा गया है कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क के प्रति या उसके लिए वे सारे कार्य कर सकता है जो उसके फायदे के लिए हो। अवयस्क की शिक्षा-दीक्षा, भरण-पोषण, अभिरक्षा, विवाह, धर्म निर्धारण आदि सभी इस शीर्षक के अधीन आते हैं। संरक्षक द्वारा अपनी इन शक्तियों का प्रयोग केवल अवयस्क के फायदे एवं कल्याण के लिए ही किया जा सकता है।

:-नैसर्गिक संरक्षक की सम्पत्ति सम्बन्धी शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं-

1. सम्पत्ति का हस्तान्तरण:- अधिनियम की धारा 8 (2) के अनुसार नैसर्गिक – संरक्षक द्वारा अवयस्क की अचल सम्पत्ति का बन्धक, विक्रय, दान, विनिमय या अन्य प्रकार, से अन्तरण केवल न्यायालय की पूर्व अनुजा से ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि न्यायालय की अनुमति के बिना ऐसा अन्तरण किया जाता है तो वह अवयस्क की इच्छा पर शून्यकरणीय होगा। (नरेन्द्र सिंह बनाम देवेन्द्र सिंह, ए.आई. आर.,1982, पंजाब एण्ड हरियाणा 201 तथा विश्वनाथ बनाम दामोदर, ए.आई.आर. 1982, कोलकाता 199)

:-ए. चिदानन्द बनाम श्रीमती ललिता बी. नायक’ (ए.आई.आर. 2006 कर्नाटक 128) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि प्राकृतिक संरक्षक (माता) द्वारा परिवार की कर्ता की हैसियत से निम्नांकित दो दशाओं में अवयस्क की सम्पति का अन्य संक्रामण किया जा सकता है-

(क) परिवार की आवश्यकता के लिए तथा

(ख) पूर्व ऋणों के उन्मोचन के लिए।

‘एम. हरीश बनाम कुमारी सिंधु’ (ए.आई.आर. 2012 कर्नाटक 1) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-कुटुम्ब के विकास के लिए विधिक आवश्यकता होने से उपगत ऋण के चुकारे के लिए कुटुम्ब के कर्ता द्वारा संयुक्त हिन्दू कुटुम्ब की सम्पति में के अवयस्क सदस्य के हिस्से का विक्रय अथवा अन्यथा व्ययन किया जा सकता है। न्यायालय की अनुमति के बिना किया गया ऐसा विक्रय या व्ययन पक्षकारों (कुटुम्ब के सदस्यों) पर आबद्धकर होगा।

एस. पी. मेती बनाम एम.एल. सावरकर’ (ए.आई.आर. 2006 एन.ओ.सी. 608 मुम्बई) के मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालय की अनुमति के बिना अवयस्क की सम्पति का प्राकृतिक संरक्षक माता द्वारा किया गया अन्य संक्रामण आरम्भतः शून्य होगा।

दायची सांक्यो क. लि. बनाम मालविन्दर मोहन सिंह (ए.आई.आर. 2019 एन.ओ.सी. 135 दिल्ली) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि- अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक द्वारा अवयस्क की सम्पति का कपटपूर्ण विक्रय नहीं किया जा सकता है।

लेकिन संसदीय बनाम सरोजनी (ए.आई. आर. 1990, एन.ओ.सी. 138, केरल) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि किसी अवयस्क के संयुक्त हिन्दू कुटुम्ब में की सम्पत्ति के अविभक्त हित का नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रय किया जाता है तो उसके लिए न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा की आवश्यकता नहीं होगी।

सन्नाम्मा बनाम शिवन्ना’ (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी. 2228 कर्नाटक) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि माता द्वारा संयुक्त हिन्दु कुटुम्ब की सम्पति में अपने तथा अवयस्क के हिस्से का अन्य संक्रामण किया जा सकता है। इसके लिए न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि माता केवल संरक्षक ही नहीं होती, अपितु संयुक्त कुटुम्ब की ज्ये सदस्य भी होती है।

श्रीसमूल बनाम पुन्डरी कशय्या (ए.आई. आर., 1949, एफ.सी., 228) के मामले में यह कहा गया है कि अवयस्क की आवश्यकता के लिए ऋण लेकर उसकी सम्पदा को आबद्ध किया जा सकता है लेकिन अवयस्क को व्यक्तिगत रूप से आबद्ध नहीं किया जा सकता। जहाँ तक न्यायालय की अनुज्ञा का प्रश्न है, ऐसी अनुज्ञा केवल तभी दी जा सकेगी जब वह अवयस्क के लिए आवश्यक एवं उसकी भलाई के लिए हो।

2. सम्पत्ति का पट्टे पर दिया जाता:- अधिनियम की धारा 6 (2) (ख) में यह प्रावधान किया गया है कि नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अवयस्क की अचल सम्पत्ति का कोई भी पट्टा पाँच वर्ष से अधिक अवधि के लिए अथवा अवयस्क के वयस्क हो जाने की तिथि से एक वर्ष में अधिक की अवधि के लिए नहीं किया जा सकेगा।

3. संविदा करने का अधिकार- अवयस्क का संरक्षक अवयस्क के लिए संविदा तो कर सकता है, लेकिन ऐसी संविदा नहीं कर सकता जो अवयस्क को व्यक्तिगत रूप से आवद्ध करती हो। ( वागला बनाम शेख मसलूद्दीन, 14 आई.ए. 39 तथा मीर सरवर बनाम फखरूद्दीन, 1912, 39. आई.ए., 7)

नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अवयस्क के लिए सम्पत्ति के क्रय की संविदा की जा सकती है और ऐसी संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन भी कराया जा सकता है। (सूर्य प्रकाशम बनाम गंगाराजू, ए.आई.आर., 1956 आन्ध्र प्रदेश, 33 )

कुमार वी. जागीरदार बनाम चेतना रमा तीरथ’ (ए.आई. आर. 2004 एस.सी. 1525) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- पिता अपनी सन्तान का प्राकृतिक संरक्षक होता है, अतः उसे अपनी सन्तान से मिलने का पूरा अधिकार है। इस मामले में पत्नी ने अपने पति को छोड़कर दूसरा विवाह कर लिया था। पूर्व पति से उसके एक सन्तान थी जो पत्नी (माता) को अभिरक्षा में थी। पत्नी सन्तान से पूर्व पति को मिलाने के लिए तैयार नहीं थी। उच्चतम न्यायालय ने कहा- पति (पिता) को अपनी सन्तान से मिलने का पूर्ण अधिकार है। उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।

:-अवयस्क किसी अन्य अवयस्क की सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता:- अधिनियम की धारा 10 में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि कोई भी अवयस्क व्यक्ति किसी अन्य अवयस्क व्यक्ति की सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता है।

इब्राहीम बनाम इब्राहीम’ [(1916) 39 मद्रास, 608] के मामले में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अवयस्क व्यक्ति अपनी पत्नी का संरक्षक तो हो सकता है लेकिन उसकी सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता।

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