अधिकार वहां उपचार(Ubi Jus lbi Remediuam)
भारत में अपकृत्य विधि का आधार इंग्लिश अपकृत्य विधि है।
यह अपकृत्य विधि का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। विधिशास्त्रियों का कहना है कि जहां उपचार उपलब्ध नहीं है, वहां यह समझ लेना चाहिए कि कानूनी क्षति नहीं हुई है।
इंग्लैंड में प्रारंभ में अपराध, अपकृत्य तथा संविदा भंग में कोई अंतर नहीं था।
चौदहवीं शताब्दी में किसी भी कार्यवाही का आधार रिट हुआ करती थी। उस समय यह विधि थी कि जहां उपचार है वहां अधिकार है।
साधारण शब्दों में इसका अर्थ था कि यदि रिट के माध्यम से जहां उपचार उपलब्ध नहीं था वह यह मान लिया जाता था कि कोई अधिकार भी नहीं है। यह प्रावधान नहीं था कि व्यक्ति के अधिकारों के उल्लंघन के लिए उपचार दिया जाए बल्कि यह देखा जाता था कि क्या किन्हीं परिस्थितियों में कोई उपचार उपलब्ध है या नहीं। वादी को रिट चुनने में सावधानी बरतनी पड़ती थी यदि वह गलती से ऐसी रिट चुन लेता था जिसमें उसका मामला नहीं आता था तो उसे सफलता नही मिलती थी। यह स्थिति लगभग 500 वर्ष तक चलती रही।
1852 में कॉमन लॉ प्रोसीजर एक्ट पारित होने के बाद रिटो को समाप्त कर दिया गया और अब स्थिति यह है कि जहां अधिकार है वहां उपचार है।
दूसरे शब्दों में जब कभी किसी विधिपूर्ण अधिकार का उल्लंघन होता है तो उसके लिए न्यायालय उपचार देता है। इसके बाद किसी मामले में यह बताने की जरूरत नहीं है कि वादी का मामला किसी विशेष रिट के अंतर्गत आता है।
1873 के जूडिकेचर एक्ट में भी यह व्यवस्था कर दी गई कि अभिवचन में केवल महत्वपूर्ण तथ्यों का ही वर्णन करना चाहिए जिन पर कोई पक्षकार भरोसा करता है।
केस- ऐशबी बनाम व्हाइट (1703)- इस मामले में मुख्य न्यायाधीश होल्ट ने कहा कि यदि किसी व्यक्ति को कोई अधिकार प्राप्त है तो उसे उस अधिकार की सुरक्षा के साधन भी मिलने चाहिए और यदि उस अधिकार के उपयोग में किसी तरह की रुकावट होती है तो उसके विरुद्ध उपचार भी होना चाहिए। बिना उपचार के किसी अधिकार की कल्पना नहीं की जा सकती।
केस- ब्रेडले बनाम गॉसेट (1884)- न्यायमूर्ति स्टीफेन ने कहा था कि जहां कानूनी उपचार नहीं होता वहां कानूनी दोष भी नहीं होता।
केस- एवोट बनाम सुलिवान (1952)- इस मामले में कहा गया कि मूल सिद्धांत यह है कि अगर विधि किसी व्यक्ति को अधिकार देती है तो उसके उल्लंघन पर उपचार भी जरूर दिया जाए।
केस- सरदार अमरजीत सिंह कालरा बनाम प्रमोद गुप्ता व अन्य उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहां अधिकार है वहां उपचार है, एक मूल सिद्धांत के रूप में मान्यता रखता है और अदालत को पक्षकारों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी और उन्हें राहत देने से इनकार करने की बजाय उनकी मदद करनी होगी।