ओलगा टेलिस बनाम बोम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन व अन्य

बैंच:- (AIR 1986 उच्चतम न्यायालय 1801 बेंच में मुख्य न्यायाधिपति वाई.वी.चंद्रचूड़,एस मुर्तजा, फजल अली, वी.डी.तुलजापुरकर,ओचिनप्पा रेड्डी व वर्धराजन थे)

ओल्गा टैलिस बनाम बोम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन व अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने देश के मुंबई महानगर की कच्ची व गंदी बस्तियों व पटरियों पर निवास करने वाले मजदूर वर्ग में गरीब लोगों की जीवन शैली का सजीव चित्रण किया उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में एक ओर महानगर के योजनाबद्ध विकास व दूसरी ओर जीवन व उससे जुड़ी जीविका की मजबूरीवश निवास कर रहे करीब पचास प्रतिशत मजदूर व गरीब वर्ग की मजबूरियों के मानवीय पक्ष पर प्रकाश डाला है, कि किस प्रकार ग्रामीण, देहाती व दूरस्थ स्थान से लोग महानगर में रोजगार की तलाश में आते हैं तथा जहाँ भी जैसा भी रहने के लिए स्थान मिल जाता है, उसी में अपना समय व्यतीत करना श्रेयस्कर समझते हैं।

मामले के तथ्य :- इस मामले में एक समूह के लोगों के पिटीशन फुटपाथ (पटरियों) पर रहने वाले लोगों से सम्बन्धित तथा दूसरे समूह के पिटीशन फुटपाथ (पटरियों) तथा गन्दी बस्तियों या कच्ची बस्तियों से सम्बन्धित हैं। जिन्होंने अपने रोजगार के स्थान के नजदीक ही अपना निवास स्थान कूड़ा करकट, मलिन व गन्दगी के बीच में बना लिया है, जिसे देखकर विश्वास नहीं होता कि क्या लोग इस तरह से भी रह सकते हैं। माँस की खोज में डूबे हठी व उन्मत्त कुत्ते एवं भूखें की चाहत में चूहों को खोजती हुई, बिल्लियाँ इन लोगों को अपना सानिध्य देते हैं। ये लोग जहाँ इन्हें सुविधाजनक होता है, वहीं अपना खाना बना लेते हैं। इनकी बढ़ती उम्र को लड़कियाँ राहगीरों के चलते हुए खुले स्थान पर, बिना इसकी चिन्ता किये कि वे महिलाएँ हैं, स्नान करती हैं। खाना व सफाई समाप्त कर औरतें एक दूसरे के जुएँ निकालती हैं। लड़के भीख मांगते हैं। आदमी लोग बिना रोजगार के कानून व व्यवस्था की सुरक्षा में लगे लोगों की सहमति से चैंन लूटते हैं जब पकड़ में आ जाते हैं, तो वे कहते हैं कि “इस शहर में कौन अपराध नहीं करता?” ये लोग उच्चतम न्यायालय में इस प्रकार का निर्णय लेने के लिए आये हैं, कि उन्हें बिना किसी विकल्प के गन्दगी से भरपूर संरक्षण से न हटाया जाये। वे अपने रोजगार के नजदीकी स्थान पर गन्दी बस्ती या पटरियों पर निवास को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 को आधार बनाते हुए कह रहे हैं कि अनुच्छेद 21 यह प्रत्याभूत (Guarantees) करता है, कि किसी व्यक्ति को बिना विधि की प्रक्रिया के उसके प्राण (Life) के अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा। वे यह नहीं कहते कि उन्हें नजदीकी गन्दी बस्तियों में रहने का अधिकार है। उनका मुख्य रूप से यह कहना है, कि उन्हें प्राण का अधिकार है, यह अधिकार बिना जीविका के साधन के प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। वे निवास हेतु केवल नजदीकी करकट वाला स्थान या गन्दी बस्ती चुनते हैं, जो उनके काम करने के स्थान के नजदीक हो। एक ही शब्द में उनका कहना यह है कि साधनों के संरक्षण के अधिकार के बिना प्राण (Life) का अधिकार भ्रांतिजनक है, क्योंकि जीविका के साधन से ही केवल प्राण (Life) को बरकरार रखा जा सकता है। तीन पैटीशनर्स याचिका पेटीशन्स संख्या (4610-4612) 1981, में एक पत्रकार व दो गन्दी बस्ती में रहने वाले लोग हैं। दो गन्दी बस्ती निवासी में से एक पी. अनगामुधू सालेम (आसाम) से बम्बई में 1961 में नियोजन की तलाश में आया था तथा 23 रु. प्रतिदिन से काम पर लग गया। दूसरा 1969 में संगमरमर, अहमदाबाद जिले से आया तथा 7 या 8 रुपये रोज के हिसाब से काम पर बम्बई में लग गया। दूसरे बैंच की याचिका पिटीशन नं. 5068-70 (1981) में 12 पिटीशनर्स हैं, जिनमें से पाँच कामराज नगर एक बस्ती, जो करीब 1960-61 में अस्तित्व में आयी, जो वेस्टर्न हाइवे, बम्बई के पास है अन्य चार पिटीशनर तुलसी पाइप रोड, माहिम, बम्बई में निवास करते हैं। पिटीशन नं. 10 पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज है, पिटीशनर नं. 11 कमेटी फोर दी प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स है, पिटीशनर नं. 12 एक पत्रकार है। कामगार नगर समूह के पिटीशनर्स के मामले में 500 झोपड़ियाँ, जिन्हें करीब 1960 में उन लोगों द्वारा बनाया गया था जिन्हें निर्माण कराने वाली कम्पनियों ने वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर पाइप लाइन डालने के लिए काम पर लगाया था। कामराज नगर निवासी म्युनिसिपल कर्मचारी, फैक्ट्री व होटल कर्मचारी, निर्माण कार्य में सुपरवाइजर आदि कार्यों में लगे हुए हैं। तुलसी पाइप सड़क पर झोपड़ियों वाले लोगों का कहना है कि वे 10 से 15 वर्ष से रह रहे हैं तथा अनेक लघु उद्योगों में लगे हुए हैं।13 जुलाई, 1981 को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री ए. आर. अन्तुले ने घोषणा की जिसे विस्तृत रूप से अखबारों में लीक प्रसिद्धि (Publicity) किया गया, कि सभी गन्दी बस्तियों में रहने वाले जो बम्बई शहर में हैं,उन्हें जबरन हटाकर अपने मूल सम्बन्धित स्थान या बम्बई शहर से बाहर स्थान के लिए निकाल दिया जायेगा तथा मुख्यमंत्री ने पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिया कि रेस्पोण्डेन्ट नं. 1, बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन को कूड़े करकट व गन्दी बस्ती में रहने वाले लोगों के निवास स्थान को गिराने में आवश्यक सहायता पहुँचाये। 23 जुलाई, 1981 को गन्दी बस्ती में रहने वाले पी. अंगामुथू का निवास, बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन द्वारा गिरा दिया गया। उसे व उसके परिवार को बस में सालेम, जहाँ का वह रहने वाला था, बैठा दिया, लेकिन कुछ समय बाद वह परिवार को छोड़कर पुनः रोजगार की तलाश में बम्बई आया तथा नौकरी मिलने पर पुनः पास में ही कूड़े- करकट के बीच गन्दी जगह में रहने लगा। 1980 में पहले ही कुछ लोगों के घर गिराये गये थे। इस तरह के मकान पुलिस की सहायता से गिराये जाते थे, अतः सम्बन्धित लोग पास के स्थान में भाग जाते थे, तथा जैसे ही अधिकारी (Officials) चले जाते थे, वे पुनः अपने पुराने रहने के स्थान पर लौट आते थे। यह छिपना व पाने की कोशिश (Hide and Seek) का एक खेल था।

(1) पिटीशनर द्वारा चुनौती का आधार :- रेस्पोन्डेन्ट द्वारा गन्दी बस्तियों में बनाई झोपड़ियों को गिराने के निर्णय को पिटीशनर्स ने संविधान के अनुच्छेद 19 व 21 के आधार पर चुनौती दी। पिटीशनर्स ने उच्चतम न्यायालय से चाहा कि वह बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट, 1888 की धारा 312, 313 314 को संविधान के अनुच्छेद 14, 19 व 21 की अवहेलना करने के कारण अवैध घोषित करे। दोनों समूह के रिट पिटीशन्स में अनुतोष वह यह चाहा गया कि रेस्पोन्डेन्ट को निर्देश दिया जाये कि वे गन्दी बस्तियों व नजदीकी पटरियों के बीच बनी झोपड़ियों को गिराने के आदेश को वापिस ले तथा जिन्हें पहले से ही तोड़ या गिरा दिया गया है, उनका कब्जा पूर्व में निवास कर रहे व्यक्ति को दिलवाया जाये।

(2) म्युनिसिपल कमिश्नर के काउन्टर शपथ पत्र के जवाब में पिटीशनर संख्या 12 प्रफुल्ल चन्द्र बिडवाई पत्रकार का कहना है कि कामराज नगर फुटपाथ या पटरी के सहारे स्थापित नहीं है तथा बस्ती हाइवे से दूर है तथा पिटीशनर्स 1 से 5 तक इस बस्ती में 20 वर्ष से अधिक समय से निवास कर रहे हैं तथा जनता को कामराज नगर के भीतर या में से जाने के रास्ते का कोई अधिकार प्रभावित नहीं होता तथा झोपड़ियों से किसी तरह पैदल जाने वालों के लिए बाधाएँ या किसी तरह की सार्वजनिक स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए खतरा या उपताप नहीं है।

(3) महाराष्ट्र राज्य सरकार के काउन्टर शपथ-पत्र के जवाब में ओलगा टैलिस का कहना था कि अधिकांशतः बड़े शहरों में डवलपमेन्ट व मास्टर प्लान्स की पालना नहीं की जाती, इस कारण जनसंख्या को सही रूप से योजनाबद्ध तरीके से वितरित नहीं किया जाता नये व्यावसायिक भवनों का निर्माण, लघु स्तर के उद्योग तथा शहर के भीतर मनोरजन गृहों को महाराष्ट्र सरकार ने अनुमति दी है जो विधि के विपरीत है, जहाँ तक कि आवासीय परिसरों को व्यावसायिक परिसरों में परिवर्तन करने की अनुमति दे दी गई है तथा राज्य सरकार ने अपने मुख्य दफ्तरों को उत्तरी क्षेत्र में नहीं ले जाने के कारण, दक्षिणी क्षेत्र में जनता को नियोजन के अच्छे अवसर इस क्षेत्र में उपलब्ध होने के कारण केन्द्रीयकरण हो गया है। जब तक आर्थिक व ऐशो आराम से क्रिया- कलापों का विकेन्द्रीकरण नहीं किया जाता, इस समस्या का उपयुक्त हल निकाल पाना सम्भव नहीं, यदि इन लोगों को बेदखल भी कर दिया जाये, तो वे शहर में वापिस लौट आयेंगे क्योंकि काम करने के अवसर उपलब्ध हैं। जो विकल्पात्मक स्थान इन लोगों को दिये गये हैं वहाँ स्कूल की मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होने के कारण वे शहर की ओर आकर्षित होते हैं। ओलगा टैलिस का कहना था कि हाउसिंग समस्या की माँग व पूर्ति में बड़ा अन्तर है। आवास की समस्या के लिए सैकड़ों करोड़ रुपयों की आवश्यकता है। राज्य सरकार के नियोजन की योजना समुद्र में एक बूंद पानी के समान हैं। नगण्य स्वास्थ्य, शिक्षा, ट्रांसपोर्ट तथा संचार के साधन ग्रामीण लोगों को शहर की ओर लाते हैं, न केवल जीने के लिए वरन् जीवन की मौलिक सुविधाओं की खोज में। जहाँ तक राज्य सरकार का कहना कि फुटपाथ पर रहने वाले लोग अपराध कारित करते हैं। इसको अनेक विशेषज्ञों के अध्ययन के निष्कर्षों के विपरीत बताते हुए कठोर रूप से मना किया। छठवें प्लान में महानगर शहरों के विकास की दर को विपरीत न कर योजनाबद्ध तरीके से विकसित करना है। शपथ पत्र में कहा कि बम्बई महानगर क्षेत्र में पर्याप्त में जमीन है, जिसमें 20 लाख लोगों को समाहित किया जा सकता है।

(4) पिटीशनर्स के काउंसिल के द्वारा यह कहा गया कि न्यायालय द्वारा यह निर्धारित किया जाये कि व्यक्तियों के प्राण के अधिकार के तत्त्व क्या हैं। कल्याणकारी राज्य में सम्पत्ति के कार्य परिमाण या मात्रा तथा सांविधानिक आज्ञा का सही अर्थ, सम्पत्ति सार्वजनिक प्रयोग में काम आनी चाहिए। भारत के किसी भी राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार जिसे, अनुच्छेद 19 (1) (इ) द्वारा तथा कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार जिसे अनुच्छेद (19) (1) (छ) द्वारा प्रत्याभूत किया हुआ है, पटरियों पर रहने वाले व्यक्तियों तथा पैदल चलने वाले व्यक्तियों के प्रतियोगी हक तथा मुख्य प्रश्न समता के अधिकार को सुनिश्चित किया जाये। पिटीशनर्स के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान माननीय न्यायाधीश डोगलस के बेकसे बनाम बोर्ड ऑफ रिजेन्ट्स (1954) 347 एम.डी. 442 में दिये निर्णय की ओर से आकर्षित किया, जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था कि “काम करने का अधिकार जैसा मैं सोचता हूँ, अत्यन्त बहुमूल्य स्वाधीनता है, जो मानव रखता है। मनुष्य को काम करने का उतना ही अधिकार है, जितना जीने, स्वतंत्रता व सम्पत्ति रखने का। काम का अर्थ है, खाने के लिए और इसका यह भी अर्थ है कि वह जीवित रहे।” अतः प्राण (Life) का अधिकार एवं काम करने का अधिकार एकीकृत व अन्तनिर्भर है, अतः यदि एक व्यक्ति गन्दी बस्ती या पटरियों पर निवास से बेदखल (eviction) कर उसे काम करने से वंचित किया जाता है, उसका प्राण (Life) का अनन्य अधिकार जोखिम में आ जाता है। पिटीशनर्स ने न्यायालय को कहा कि पटरी पर निवास करने वालों को अतिचारी (Tresspasser) कहना सांविधानिक दृष्टिकोण में अनुचित है, क्योंकि उन्होंने पटरियों पर कब्जा आर्थिक मजबूरी के कारण किया हुआ है। राज्य द्वारा आर्थिक स्रोतों की कमी के कारण मौलिक अधिकारों से वंचित करना, क्षमायोग्य नहीं है। पिटीशनर्स ने प्लानिंग कमीशन भारत सरकार, 1980 के एक प्रकाशन ‘दी रिपोर्ट ऑफ दी एक्सपर्ट ग्रुप ऑफ प्रोग्राम्स फॉर दी एलीवेशन ऑफ पौवरटी (The report of the Expert Group of Programmes for the Alleviation of Poverty)’ को आधार मानते हुए बताया कि भारत में अत्यन्त गरीबी है। रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि 1977-78 में 48% जनता गरीबी की रेखा से नीचे है। 1979-80 में 8 मिलियन लोग ग्रामीण इलाके के गरीबी की रेखा से नीचे पाये गये। एक महाराष्ट्र सरकार का प्रकाशन “बजट एण्ड दी न्यू 20 प्वाइन्ट सोसियो इकोनोमिक प्रोग्राम” के हिसाब से महाराष्ट्र में करीब 45 लाख परिवार गाँवों में है, जो गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करते हैं। इसके अतिरिक्त 40% उस क्षेत्र की परिधि में रहते हैं। औसतन एक कृषक के पास 0.4 हैक्टेयर जमीन है, जो उसके खर्चा चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। आर्थिक मजबूरी व अनियोजन के कारण ये जमीन से रहित लोग शहरी क्षेत्र में रोजगार की तलाश में आते हैं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित ‘दी इकोनोमिक सर्वे ऑफ महाराष्ट्र’ से ज्ञात होता है कि अधिकांश मात्रा में सार्वजनिक धन का विनियोग (Investment), बम्बई, पुणे तथा थाने जैसे बड़े शहरों में किया हुआ है। जहाँ रोजगार के अवसरों से आकर्षित होकर लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहर में आते हैं। महाराष्ट्र में आवास निर्माण का कार्य ‘दी महाराष्ट्र लिमिटेड’ द्वारा किया जाता है, जो क्रमशः 3000 व 1000 यूनिट्स का निर्माण करती है, जबकि वार्षिक आवश्यकता 60,000 यूनिट्स की है। हालाँकि कहने के लिए गरीब लोगों के लिए आवास की सुविधा है, लेकिन कीमत उनकी क्षमता से बाहर होने के कारण, वे खरीद नहीं पाते। पिटीशनर्स ने कहा कि 2,00,000 हैक्टेयर जमीन बिना किसी के स्वामित्व के बम्बई में खाली पड़ी हुई है। अरबन लैण्ड सीलिंग एण्ड रेग्यूलेशन अधिनियम भी अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल हो गया क्योंकि यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि बम्बई में 5% ऐसे मकान मालिक हैं जिनके पास 55% जमीन है। यद्यपि 2952.83 हैक्टेयर शहरी जमीन राज्य सरकार द्वारा अर्जित करने के लिए है क्योंकि यह सीलिंग की सीमा से ज्यादा है, लेकिन सीलिंग से अधिक जमीन की केवल 41.51% जमीन ही सरकार द्वारा अर्जित की गई है। यह सब सरकार की दोषपूर्ण योजना नीति के कारण है। पटरियों व गन्दी बस्तियों में रहने वाली बम्बई की 50% जनता शहर के रिहायशी क्षेत्र के 25%क्षेत्र में रहती है। अतः इन परिस्थितियों में, केवल अस्तित्व की महत्ती आवश्यकता के कारण ये लोग पटरियों व गन्दी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर हैं क्योंकि इनके लिए कोई दूसरा स्थान रहने के लिए नहीं है। अतः पिटीशनर्स ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (इ) व (छ) तथा अनुच्छेद 21 के तहत पटरियों व गन्दी बस्तियों में निवास करने का अधिकार माँगा है। पिटीशनर्स ने बिना नोटिस के झोपड़ियों को तोड़ने की कार्यवाही को गलत बताते हुए बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन अधिनियम की धारा 312, 313 व 314 को अधिनियम से हटाने के लिए कहा।

रेस्पोडेन्ट के तर्क :- महाराष्ट्र सरकार की ओर से श्री वी. एस. मुन्जे, अण्डर सेक्रेटरी इन दी डिपार्टमेन्ट ऑफ हाउसिंग की ओर से काउण्टर शपथ पत्र दर्ज किया गया। इस शपथ पत्र में श्री मुन्जे ने स्पष्ट किया कि महाराष्ट्र सरकार ने किसी भी गन्दी बस्ती में निवास करने वाले व्यक्ति को बम्बई शहर से बाहर भेजने का प्रस्ताव नहीं रखा तथा न किसी को भेजा है। जिन व्यक्तियों ने लिखित में अपनी इच्छा जाहिर की है कि वे अपने मूल स्थान वापिस जाना चाहते हैं तथा सरकार से आर्थिक मदद चाही है, उन्हें वाहन व रेलवे का किराया या बस का किराया तथा आनुषांगिक खर्चे आगे यात्रा करने के लिए प्रस्ताव रखा गया है। महाराष्ट्र सरकार ने अपने अधिकारियों को 23 जुलाई, 1981 को निर्देश जारी किये हैं कि गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोगों को कोई असुविधा या पीड़ा कारित न हो। शपथ पत्र में यह भी कहा गया कि किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक गली, फुटपाथ या अन्य स्थान जहाँ से जनता को जाने का अधिकार है, किसी प्रकार का अतिक्रमण या किसी प्रकार के ढाँचे के निर्माण का अधिकार नहीं है। यदि इस प्रकार के अतिक्रमण को न हटाया जाये तो अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व सुरक्षा को खतरे उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि फुटपाथ वालों के लिए कोई सुविधा प्रदान नहीं की जा सकती, फुटपाथ पर निवास करने वाले, फुटपाथ को तो प्रयोग करते ही हैं तथा अपनी सुविधा के लिए साथ में जुड़ी गलियों को भी प्रयोग में लेते हैं। इसके अलावा कुछ फुटपाथ पर निवास करने वाले असामाजिक कृत्यों में भी उलझे रहते हैं। जैसे चैन खींचना, अवैध रूप से शराब बनाना या वैश्यावृत्ति। उचित वातावरण के अभाव में आपराधिक प्रवृत्तियाँ विकसित होती हैं, परिणामतः शहरों में अधिक अपराध बढ़ते हैं। अतः यह लोकहित में है कि सार्वजनिक जैसे फुटपाथ व पटरियों पर अतिक्रमण न हो। महाराष्ट्र सरकार अपनी सामाजिक व आर्थिक विकास योजना में गरीब वर्गों को मकानों के लिए सहायता देती है जो जमीन रहित मजदूर या कम आमदनी वाले समूह हैं। समाज के कम आमदनी व गरीब लोगों के लिए 75% हाउसिंग प्रोग्राम महाराष्ट्र सरकार ने रखे हैं। राज्य की एक प्लानिंग पॉलिसी यह भी है कि यह सुनिश्चित किया जाये कि ग्रामीण इलाके से शहरों की ओर पलायन कम किया जाये। यह राज्य सरकार व देश के हित में होगा तथा उचित सामाजिक व आर्थिक विकास हो पायेगा। अतः राज्य सरकार ने एम्पलॉयमेन्ट गारण्टी स्कीम बनाई कि जो लोग साल के कुछ समय अनियोजित या उचित नियोजन नहीं ले पाते हैं, वे ऐसे समय में नियोजन प्राप्त कर सकते हैं, महाराष्ट्र सरकार ने करीब 180 करोड़ रुपया इस योजना पर, वर्ष 1979-80 व 1980-81 के दौरान खर्च किया। इसके अलावा 2 अक्टूबर, 1980 को सरकार ने दो अतिरिक्त योजनाएँ निकाली कि जिन व्यक्तियों को वृद्ध अवस्था अथवा शारीरिक असमर्थता के कारण नियोजन नहीं मिल पाता उन्हें नियोजन मिल सके। राज्य सरकार ने स्व-नियोजन अवसर वाली एक नयी योजना “संजय गाँधी निराधार अनुदान योजना” निकाली इसमें साठ रुपये माह के हिसाब से पेंशन उन लोगों को दी जाती है, जो बहुत वृद्ध होने के कारण कार्य नहीं कर सकते या शारीरिक रूप से विकलांग हैं। इस योजना के लिए 1,56,943 व्यक्तियों को छाँटा गया तथा 2.25 करोड़ रुपये वितरित किये गये तथा दूसरी योजना संजय गाँधी स्वावलम्बन योजना के तहत बिना ब्याज के ऋण अधिकतम 2500/- रु. तक उन लोगों के लिए रखा गया जो स्वयं का कोई लाभोत्पादक नियोजन प्रारम्भ करना चाहते थे। करीब 1,75,000 व्यक्तियों को इस योजना का फायदा मिला तथा 5.82 करोड़ रुपये ऋण के रूप में वितरित किए गए। सूक्ष्म में, महाराष्ट्र सरकार छोटे वे मध्यम कस्बों के लिए नयी रचना बनाने पर जोर देने जा रही थी कि वे ग्रामीण लोगों के विकास तथा सर्विस सेन्टर के लिए सशक्त बन सकें। राज्य सरकार की ओर से कहा गया है कि बम्बई महानगर जैसे शहरों पर जनसंख्या का दबाव बनाकर देहाती गरीबी को कम नहीं किया जा सकता।

2. काउण्टर शपत्र पत्र में श्री मुन्जे द्वारा यह भी कहा गया कि बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन अधिनियम की धारा 312, 313 व 314 संविधान का उल्लंघन नहीं करती। महाराष्ट्र राज्य ने 1976 की सैन्सस को आधार मानते हुए निर्णय लिया कि फुटपाथ पर निवास करने वाले जिन व्यक्तियों को हटाया जायेगा उन्हें मालवानी के विकसित पिच का विकल्प दिया जायेगा, जहाँ वे अपनी झोपड़ियाँ बना सकते हैं। पंचवर्षीय योजना के तहत केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष 1978-83 के लिए योजना में दर्शाया गया कि हाउसिंग में पूर्ण खर्च की मात्रा 2790 करोड़ रुपए होनी चाहिए उससे मकान की समस्या आंशिक रूप से निपटायी जा सकती है। बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की ओर से श्री डी.एम. सुकथाकर, कमिश्नर ग्रेटर कैलाश बम्बई के शपथ पत्र द्वारा बताया गया कि उसने तुलसी पाइप रोड (सेनापति बापत मार्ग) व वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे, विले पररले (ईस्ट) बम्बई को 23 जुलाई, 1981 को देखा। कुछ झोपड़ियों को बिना नोटिस दिये तोड़ा गया क्योंकि बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरशन अधिनियम की धारा 314 ऐसा करने की अनुमति देती है। इस बात को भी मना किया गया कि शहर में फुटपाथ पर रहने वाले लोगों के आवास के प्रयोग करने हेतु शहर में विशाल जमीन खाली पड़ी हुई है। शपथ पत्र में बताया गया कि बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरशन अधिनियम निगम के अनिवार्य दायित्वों के बारे में बताता है। इस धारा के वाक्य (ग) व (घ) में निगम का दायित्व है कि सभी प्रकार के उपताप को खत्म करने के उपाय ले। वाक्य (छ) के अन्तर्गत निगम का दायित्व है कि खतरनाक बीमारियों को फैलने से रोकथाम व नियंत्रण के लिए उपाय अपनाये। वाक्य (ओ) के तहत निगम सार्वजनिक गलियों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अड़चनों (Obstructions) या निकास (Projections) को हटायेगा। धारा 63 (k) कॉर्पोरेशन को शक्ति प्रदान करती है कि वह लोक सुरक्षा, स्वास्थ्य या सुविधाओं को प्रोत्साहन देने के लिए उपाय अपनाये। धारा 312 से 314 का उद्देश्य पटरियों व फुटपाथों को अतिक्रमण से मुक्त रखना है ताकि पैदल चलने वालों को सड़क पर चलने को मजबूर न होना पड़े, जहाँ भारी मात्रा में वाहनों का आवागमन रहता है। फुटपाथ पर रहने वाले लोग विष्टा विसर्जन, स्नान करने, खाना बनाने तथा कपड़े व बर्तन धोने का कार्य फुटपाथ पर तथा उसके समीप सार्वजनिक गलियों में करते हैं। इन लोगों को मौलिक आवश्यकताओं जैसे ड्रेनेज, पानी, सैनीटेशन सम्भवतः नहीं दी जा सकती। कमिश्नर ने शपथ पत्र में कहा कि इन लोगों द्वारा लोक सम्पत्ति पर अतिक्रमण करने के कारण उनके किसी भी मौलिक अधिकार का हनन नहीं हुआ है। कमिश्नर ने काउण्टर शपथ-पत्र में याचिका संख्या 5068-79, 1981 के सम्बन्ध में कहा कि वेस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे, विले पारले, बम्बई जिसे हाइवे की समानुषंगिक (Assessory) रोड पर निर्माण किया गया है, जो स्वयं में हाइवे है।

3. श्री अनिल वी गौकक, एडमिनिस्ट्रेटर ऑफ महाराष्ट्र हाउसिंग एण्ड एरिया डवलपमेन्ट अथॉरिटीबम्बई (जो 1981 में सेक्रेटरी, डिपार्टमेन्ट ऑफ हाउसिंग थे) ने उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित अन्तरिम आदेश दिनांक 19 अक्टूबर, 1981 में संशोधन के लिए आवेदन किया व कहा कि 4 जनवरी, 1976 की जनगणना के तहत 2,60,000 के 67% झोपड़ी वाले ने अपने परिवार के मुखिया के फोटोग्राफ दिखाये तथा इसी के आधार पर झोपड़ियों को नामांकित किया गया तथा उसमें रहने वाले व्यक्तियों को पहचान पत्र दिये गये। यह निर्णय लिया गया कि जो लोग झोपड़ियों में गन्दी बस्ती में लम्बे अर्से से रह रहे हैं तथा विकसित हो चुकी है, उन्हें सामान्यतः नहीं तोड़ा जायेगा, जब तक कि जमीन लोक हितार्थ वांछित न हो। यदि सरकार को लोकहित में जमीन की आवश्यकता होगी, तो सरकार की नीति विकल्पात्मक रहने की सुविधा गन्दी बस्ती में रहने वाले लोगों को देगी, जिन्हें 1976 में सैन्सस किया जा चुका है तथा जिनके पास पहचान पत्र हैं। यह सरकार की नीति कभी भी नहीं रही है कि फुटपाथ या अन्य स्थान जहाँ जनता के जाने का रास्ता है, उस पर झोपड़ियों के निर्माण को प्रोत्साहित किया जाये। 1981 में सरकारी अधिकारियों ने प्रयत्न किया कि फुटपाथ के नजदीक रहने वाले लोगों को बेदखल की समस्या की मात्रा को सुनिश्चित किया जाये। इस दौरान यह पाया गया कि कुछ व्यक्तियों के पास पेवमेन्ट कैरीड सैन्सस काईस, 1976 (Pavement Carried Census Cards, 1976) भी थे।

4. विद्वान एटार्नी जनरल मिल. के. के. सिंघवी व रेस्पोन्डेन्ट की ओर से मि. शंकर नारायण ने बोलते हुए कहा कि किसी को मौलिक अधिकार नहीं है, चाहे जो भी मजबूरी हो कि वे नजदीकी पटरियों, सार्वजनिक सड़कों या अन्य स्थानों पर जहाँ से जनता गुजरती है कि वे वहाँ रहने के लिए झोपड़ियाँ बना ले। संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ङ) भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार किसी नागरिक को यह लाइसेन्स नहीं देता कि वह लोक सम्पत्ति पर अतिक्रमण या अतिचार (Tresspass) करें। जहाँ तक अनुच्छेद 21 का सवाल है, गन्दी बस्ती व पास में कूड़ा-करकट के बीच निवास करने वाले व्यक्तियों को यदि सार्वजनिक स्थान से बेदखल किया जाता है, तो इससे प्राण के अधिकार को वंचित नहीं किया जाता।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न :- उच्चतम न्यायालय के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राण (Life) के अधिकार में जीविकोपार्जन (Livelihood) का अधिकार शामिल है। माननीय मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने उच्चतम न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों की बैंच की ओर से बोलते हुए कहा कि यद्यपि 4 अगस्त, 1981 को पिटीशनर्स ने लिखित में बम्बई हाइकोर्ट में सहमति व्यक्त करते हुए यह वचन (Undertaking) दिया था कि वे झोपड़ियों को 15 अक्टूबर, 1981 को या उससे पहले खाली कर देंगे तथा लोक प्राधिकारियों को इन्हें तोड़ने में बाधा नहीं खड़ी करेंगे, लेकिन पिटीशनर्स को हक है कि वे यह कह सकते हैं कि लोक प्राधिकारियों के द्वारा इस तरह की गई कार्यवाही से उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है।” उच्चतम न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिका पिटीशन को निपटाने का क्षेत्राधिकार है, अथवा नहीं, इस सन्दर्भ में श्रीमती डुज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (ए.आई. आर. 1962, सर्वोच्च न्यायालय 1621) तथा नौ माननीय न्यायाधीशों की विशेष बैंच द्वारा निर्णीत, नरेश श्रीधर मिराजकर बनाम महाराष्ट्र राज्य (ए.आई.आर. 1967 सर्वोच्च न्यायालय । पृष्ठ 17) का विवेचन करते हुए निर्धारित किया कि पिटीशनर्स का यह कहना है कि बम्बई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन अधिनियम की धारा 314 के तहत विहित प्रक्रिया मनमानी व अनुचित है, अतः यह अनुच्छेद 21 के तहत “विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के अन्तर्गत नहीं है। अतः उनके प्राण (Life) के मौलिक अधिकारों से इस तरह की प्रक्रिया को अपनाकर, वंचित नहीं किया जा सकता। अतः पिटीशन अनुच्छेद 32 के तहत स्पष्टतः ग्रहण करने योग्य है। माननीय मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने इस प्रश्न का विचारण करते हुए कि क्या प्राण के अधिकार (Right to Life) में जीविकोपार्जन (Livelihood) का अधिकार शामिल है अथवा नहीं? के सन्दर्भ में कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत प्राण के अधिकार का क्षेत्र व्यापक व दूरगामी है। इसका केवल यह तात्पर्य नहीं है कि प्राण को समाप्त नहीं किया जा सकता या प्राण को लिया नहीं जा सकता। उदाहरण के तौर पर विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा मृत्युदण्ड आरोपित करके व मृत्युदण्ड कार्यान्वित करके प्राण के अधिकार को समाप्त किया जा सकता है। यदि जीविकोपार्जन को सांविधानिक अधिकार का अंग नहीं माना जायेगा, तब प्राण के अधिकार से वंचित करने का सबसे सुगम तरीका जीविकोपार्जन के अधिकार को अन्त करके, किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति को जीविकोपार्जन के अधिकार से वंचित किया जाता है, तो आपने उसे जीवन से वंचित कर दिया।” उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय का भी विचारण किया जिसमें उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया था कि अनुच्छेद 21 द्वारा प्रत्याभूत (Guaranteed) प्राण के अधिकार में जीविकोपार्जन का अधिकार शामिल नहीं है।

हमारे सामने पिटीशनर्स पटरियों या गन्दी बस्तियों में निवास कर किसी अवैध, अनैतिक या लोकहित के विरुद्ध क्रियाकलाप का हक नहीं माँग रहे। उनमें से बहुत से नम्र व सम्मानीय व्यवसाय करते हैं। यह हमारे हिस्से पर अवास्तविक ही होगा कि हम पिटीशनर्स के पिटीशन को इस आधार पर निरस्त कर दें कि उन्होंने इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया कि वे बिना काम के हो जायेंगे यदि उन्हें बेदखल किया जायेगा।” अतः निष्कर्षतः सांविधानिक शब्दावली के रूप में यह है कि पिटीशनर्स की बेदखली, उन्हें जीविकोपार्जन (Means of Livelihood) के अधिकार से वंचित कर देगी तथा परिणामतः उन्हें प्राण के अधिकार (Right to Life) से वंचित कर देगी। न्यायालय ने आगे कहा कि उपरोक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकलते हैं। एक कि प्राण का अधिकार (Rights to Life) जो अनुच्छेद 21 द्वारा दिया गया है, दूसरा कि यह सुस्थापित है कि यदि पिटीशनर्स को उनके निवास स्थान से बेदखल किया जाता है, तो जीविकोपार्जन (Means of Livelihood) से वंचित हो जायेंगे। लेकिन संविधान का अनुच्छेद 21 प्राण व दैहिक स्वाधीनता के अधिकार के वंचित किये जाने पर पूर्ण प्रतिषेध (Embargo) नहीं लगाता। उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि यह सुनिश्चित विधि है, कि अनुच्छेद 21 के तहत दिये अधिकार को वंचित करने वाली प्रक्रिया निष्पक्ष, न्याय संगत व उचित होनी चाहिए।”म्युनिसिपैलिटी कॉर्पोरेशन अधिनियम, 1988 की धारा 312 (1), 313 (1) (क) व 314 जिसको अनुच्छेद 21 के उल्लंघन का इस मामले में आधार बनाया गया था, का विवेचन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा-“जिस प्रकार से दुर्भावनापूर्वक किया गया कृत्य विधि की दृष्टि में कोई स्थान नहीं रखता, क्योंकि तर्कहीन (Unreasonable) विधि व प्रक्रिया दोनों को समान रूप से दूषित (Vitiate) कर देती है। इसलिए यह आवश्यक है कि विधि द्वारा विहित प्रक्रिया, जो व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को वंचित करती है, इस मामले में प्राण का अधिकार उसे न्याय व उचित व्यवस्था (Justice and Fairplay) की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। कोई प्रक्रिया जो मामले की परिस्थितियों में अनुचित व अन्यायसंगत है, वह तर्कहीनता के दोष को आकर्षित करती है तथा उस विधि को तथा की गई कार्यवाही को दूषित करती है जो विधि द्वारा विहित प्रक्रिया के अन्तर्गत ली गई है। अतः किसी लोक प्राधिकारिता द्वारा ली गई कोई कार्यवाही जिसे कानूनी अधिकार दिये गये हैं, उसे दो मानकों का प्रयोग कर परखना चाहिए, उस लोक अधिकारी की कार्यवाही को विधि द्वारा दी गई प्राधिकारिता के क्षेत्र के अन्तर्गत होना चाहिए, द्वितीय उस कार्यवाही को उचित होना चाहिए। यदि कोई कार्यवाही विधि की प्राधिकारिता द्वारा प्रदत्त कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत अनुचित पायी जाती है, इसका तात्पर्य यह होगा कि विधि द्वारा विहित प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत कार्यवाही ली गई है, वह स्वयं ही अनुचित है। विधि के सारतत्व को प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता, जिसे विधि विहित करती है। विधि कितनी भी उचित क्यों न हो, यह इस बात पर निर्भर करती है कि इसके द्वारा विहित प्रक्रिया कितनी न्यायसंगत (Fair) है। न्यायमूर्ति ने अपने लेख “दी वेलफेयर स्टेट, रूल ऑफ लॉ एण्ड नेचुरल जस्टिस” जो उनकी पुस्तक ‘डेमोक्रेसी, इक्वेलिटी एण्ड फ्रीडम’ में दिया गया है, उसमें उन्होंने बताया है, कि यहाँ विधिशास्त्रिक (Juristic) विचार से सहमति है कि विधि के शासन का महान उद्देश्य व्यक्ति विशेष को मनमानी शक्ति के प्रयोग के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करना है। इस सूत्र को अपनाते हुए, न्यायाधीश भगवती ने न्यायालय की ओर से बोलते हुए आर.डी. शेट्टी बनाम इन्टरनेशनल एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1979 उच्चतम न्यायालय 1628 पृष्ठ 1636 पर) के मामले में कहा कि “यह सोचा भी नहीं जा सकता कि विधि शासन से शासित प्रजातंत्र में, कार्यपालिकीय सरकार या उसका कोई अधिकारी, व्यक्ति के हितों के ऊपर मनमानी शक्ति रखता होगा। कार्यपालिकीय सरकार की प्रत्येक कार्यवाही युक्तियुक्त व मनमानेपन से मुक्त होनी चाहिए। यह विधि के शासन के लिए परम आवश्यक है एवं यह इसकी न्यूनतम अपेक्षा (Requirement) है।

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