न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation):-
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अनुसार विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार चाहे विवाह इस अधिनियम से पहले हुआ हो या उसके पश्चात जिला न्यायालय को धारा 13 की उपधारा (1) में और यदि पत्नी है तो उपधारा (2) में दिए गए आधारों में से किसी भी एक आधार पर विवाह विच्छेद की अर्जी दायर की जा सकती है।
केस- विश्वनाथ बनाम अंजली (1975)– न्यायालय द्वारा पृथक्करण की डिक्री तभी स्वीकार होगी जबकि विवाह मान्य है।
केस- नरसिंह बनाम वसम्मा (1976)– पृथक्करण के बाद पक्षकार पति-पत्नी ही रहते हैं, विवाह विघटित नहीं होता है। एक पक्षकार की मृत्यु के बाद दूसरा उसकी संपत्ति में उत्तराधिकारी है। और दूसरा विवाह करने पर द्विविवाह का अपराधी हो जाता है।
आधार– विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम 1976 के द्वारा न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद के आधार एक बना दिए गए हैं।
न्यायिक पृथक्करण और तलाक में अंतर–
1) न्यायिक पृथक्करण में वैवाहिक संबंध का स्थायी रूप से निलंबन होता है जबकि तलाक में वैवाहिक संबंध का स्थायी रूप से समाप्त त हो जाते हैं।
2) न्यायिक पृथक्करण में पति पत्नी का सम्बन्ध रहता है ता है जबकि तलाक में पति-पत्नी का संबंध नहीं रहता है।
3) न्यायिक पृथक्करण में पुनः सहवास के लिए औपचारिकता की जरूरत नहीं होती जबकि तलाक में पुनः सहवास के नि लिए पुनः विवाह करने की आवश्यकता होती है।
4) न्यायिक पृथक्करण में पक्षकारों को दूसरे विवाह की क्षमता नहीं होती जबकि तलाक में पक्षकारों को दूसरे विवाह की क्षमता होती है।
5) न्यायिक पृथक्करण में एक पक्षकार की मृत्यु पर दूसरा पक्षकार उत्तराधिकारी होता है जबकि तलाक में एक पक्ष की मृत्यु पर दूसरा पक्ष उत्तराधिकारी नहीं होता।
6) न्यायिक पृथक्करण में वैवाहिक अनुतोष की प्रकृति तलाक की अपेक्षा कम गंभीर है जबकि तलाक में वैवाहिक अनुतोष की प्रकृति ज्यादा गंभीर है।
7) न्यायिक पृथक्करण में भविष्य के लिए दो अवसर होते है
1) दोबारा सहवास
2) सहवास ना होने पर एक साल बाद तलाक
जबकि तलाक में दोनों को स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने का अवसर देना होता है।
पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद-विवाह विधि संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह विच्छेद का उपबंध एक नई धारा 13 ख में जोडा गया है। इस धारा में पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह विच्छेद की याचिका इन आधारों पर दोनों पक्षकारों द्वारा सम्मिलित रूप से दायर की जा सकती है-
1) पति-पत्नी एक वर्षों से अधिक अवधि से अलग-अलग रह रहे हैं।
2) वे साथ-साथ रहने में असमर्थ रहे हैं।
3) उन्होंने पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह विच्छेद करना स्वीकार किया है।
इन आधारों के साबित हो जाने पर न्यायालय का कर्तव्य है कि विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर दे।
धारा 13ख की उपधारा 2 में यह उपबन्ध है कि याचिका पेश करने के बाद याचिकाकारो को कम से कम 6 महीने की प्रतीक्षा करनी होगी। उसके पश्चात यह प्रस्ताव न्यायालय के सामने पेश किया जाएगा कि उनके विवाह के विघटन के डिक्री पारित कर दी जाए लेकिन ऐसे प्रस्ताव को अठ्ठारह महीने के बाद पेश नहीं किया जा सकता है। अठ्ठारह महीने निकल जाने पर उन्हें फिर से दूसरी याचिका पेश करनी होगी।
केस- कृष्णामूर्ति बनाम आभा (1983)- पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह विच्छेद की डिक्री पारित करने से पहले न्यायालय का यह समाधान होना जरूरी है कि दोनों में से किसी भी पक्षकार की सहमति कपट, छल या असम्यक असर द्वारा नहीं ली गई है।
केस- समिष्ठा बनाम ओमप्रकाश (1992) उच्चतम न्यायालय ने कहा कि साथ साथ रहने में असमर्थता का मतलब है कि विवाह पूरी तरह से टूट चुका है और उसके जुड़ने की कोई संभावना नहीं है।