अपकृत्य के अपवाद (Exception of Torts):-
अर्थ:-अपवाद वे स्थितियां हैं जिनमें किए गए कार्य को अपकृत्य नहीं माना जाएगा। आमतौर पर एक बचाव।
अपकृत्य के अपवाद :-
1) सहमति (वोलेंटी नॉन फिट इंजुरिया)
2) आवश्यकता के कार्य (Acts of Necessity)
3) कानूनी प्राधिकार (Statutory Authority)
4) दैवीय कार्य (Act of God)
5) अपरिहार्य घटनाएं (Inevitable accidents)
6) वादी स्वयं अपकारी (Plantiff the wrongdoer)
7) प्राइवेट प्रतिरक्षा (Private Defence)
8) भूल से किए गए अपकृत्य (Tort done by mistake)
1) स्वेच्छा से उठाई गई क्षति, क्षति नहीं है- वादी की सहमति से किए गए कार्य कानून की दृष्टि में नुकसानकारी नहीं होते हैं, इसलिए उनके लिए मुकदमा नहीं किया जा सकता। कानून की दृष्टि में यह माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति क्षति उठाने के लिए अपनी सहमति देता है तो वह नुकसान उठाने के बाद उसके लिए मुकदमा नहीं कर सकता।
केस- स्मिथ बनाम बेकर (1891)– यदि कोई व्यक्ति अपने आप किसी घटना को आमंत्रित करता है या उसकी सहमति देता है तो भले ही वह उसके परिणाम से नुकसान उठाएं तो वह उसके लिए मुकदमा दायर नहीं कर सकता।
2) वादी स्वयं अपकारी (Plantiff the wrongdoer) – इसके अनुसार यदि वादी की स्वयं की गलती हो तो प्रतिवादी को दायी नहीं ठराया जा सकता। संविदा विधि में यह सिद्धांत है कि न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति कि सहायता नहीं कर सकता जिसकी कार्यवाही का आधार ही कोई अवैध कार्य है। यह सिद्धांत Ex turpi causa non oritur actio (एक्स तुरपी कौसा नॉन ओरितूर ऐक्टिव) के रूप में जाना जाता है।
केस- वर्ड बनाम हॉलबुक्र (1828)– इस वाद में वादी ने अपनी भूमि में एक चोर बंदूक लगा रखी थी ताकि प्रतिवादी कि भूमि पर अतिचार को रोका जा सके बंदूक से वादी को ही नुकसान पहुंचा न्यायालय ने कहा कि हालांकि वादी अपने कार्यों के लिए दोषी था लेकिन प्रतिवादी को भी जिम्मेदार ठहराया गया
3) आवश्यकता के कार्य– यह अपवाद “जनहित ही सर्वोच्च विधि” (Salus populi suprema lex) कहावत पर आधारित है। अनेक व्यक्तियों की रक्षा लाभ के लिए किए गए कार्य के लिए मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता क्योंकि बड़े नुकसान को टालने के लिए किए गए कार्य से हुए नुकसान के लिए मुकदमा नहीं किया जा सकता, चाहे ऐसा कार्य नुकसान पहुंचाने के आशय से ही क्यों ना किया गया हो।
उदाहरण – अगर कहीं आग लगी हो और उसे बुझाने के लिए पानी किसी पड़ोसी के मकान में भी गिरता है जिससे नुकसान होता है तो उसके लिए पानी डालने वाले व्यक्ति को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
4) कानूनी प्राधिकार– जब किसी कानून या रीति रिवाज द्वारा मान्य कोई कार्य किया जाता है तब यदि किसी को कोई नुकसान होता है तो उसके आधार पर मुकदमा नहीं लाया जा सकता और ना ही पीड़ित व्यक्ति को नुकसानी मिलती है।
केस- मेट्रोपॉलिटन एसाइलम जिला बोर्ड बनाम हिल (1881)- एक स्थानीय अधिकारी को अधिनियम द्वारा चेचक अस्पताल बनवाने का अधिकार दिया गया था लेकिन न्यायालय द्वारा उसे इसलिए रोक दिया गया था क्योंकि अस्पताल बनने से आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए घातक था। न्यायालय ने कहा कि यह सच है कि अधिकारी को कानून द्वारा अस्पताल बनवाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन इसका प्रयोग वह इस तरह करे जिससे कि किसी को नुकसान ना पहुंचे।
5) दैवीय कार्य- जो घटना प्राकृतिक शक्तियों के कारण घटित हो जिनका पहले से अनुमान नहीं किया जा सकता और जिनका संबंध किसी मानवीय कार्य से नहीं है। जैसे- भूकंप, तेज वर्षा, आंधी, तूफान, ज्वालामुखी विस्फोट आदि।
केस- निकोलस बनाम मार्सलेण्ड (1875)– प्रतिवादी की जमीन पर तीन कृत्रिम झीले थी, इनमें पानी एक प्राकृतिक झरने से आता था। अत्यधिक वर्षा के कारण झीले भर गई और पानी उनके कगार को तोड़कर वादी की भूमि पर बहने लगा। पानी के बहाव से वादी के चार पुल बनाने के सामान भी बह गए। न्यायालय ने कहा प्रतिवादी दायी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यह दुर्घटना एक दैवीय दुर्घटना थी जिसका अनुमान प्रतिवादी नहीं कर सकता था।
6) अपरिहार्य घटनाएं – वह घटना होती है जिसे सामान्य बुद्धि का व्यक्ति उन परिस्थितियों में आवश्यक सावधानी बरतने के बावजूद भी रोक नहीं सकता, जिनमें वे घटित होती है।
केस- पद्मावती बनाम दुग्गनायिका (1975)– इस मामले में दो अनजान व्यक्ति एक जीप में सवार हो गए कुछ दूर जाने पर जीप के अगले दाहिने पहिए का बोल्ट ढीला होने के कारण पहिया एक्सेल से अलग हो गया, जिससे जीप उलट गई दोनों व्यक्ति गंभीर रूप से घायल हो गए और एक की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने कहा कि यह अपरिहार्य घटना थी क्योंकि ऊपरी खराबी का कोई साक्ष्य नहीं था।
7) प्राइवेट प्रतिरक्षा– यदि कोई व्यक्ति अपने बचाव में या अपनी संपत्ति के बचाव में या अन्य व्यक्ति के बचाव में किसी को नुकसान पहुंचाता है तो उसके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। प्राइवेट प्रतिरक्षा से सम्बंधित प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता की धारा 96-106 में दिये गए है।
केस- देवेंद्र भाई बनाम मेघू भाई और अन्य (1986)- प्रतिवादी ने अपने पिता की सुरक्षा के लिए वादी पर प्रहार किया। फिर भी न्यायालय ने कहा कि प्राइवेट प्रतिरक्षा का सिद्धांत न केवल अपनी सुरक्षा तक सीमित है बल्कि अन्य व्यक्तियों की सुरक्षा जैसे अपनी पत्नी, माता-पिता तथा अपने बच्चों की सुरक्षा तक विस्तृत है।
8) भूल से किए गए अपकृत्य– आमतौर पर विधि की भूल माफी योग्य नहीं होती। भूल चाहे विधि की हो या तथ्य की, अपकृत्य में बचाव नहीं होती लेकिन इस नियम का एक अपवाद है अगर भूल ऐसी हो जिसे उन परिस्थितियों में साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी करता तो नुकसानी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
केस- कंसोलिडेटेड कंपनी बनाम कर्टिस (1894)- एक नीलामीकर्ता जिसने भूल से किसी व्यक्ति के माल को अपने ग्राहक का माल समझकर नीलाम करके विक्रय पत्र ग्राहक को दे दिया था। बेचे गए माल के स्वामी को नुकसानी का देनदार ठहराया गया और असली स्वामी के बारे में भूल का तर्क उसको व दायित्व से मुक्ति नहीं दे सका।