:-मुस्लिम विधि का सम्बोध:-
-मुसलमानों की विधि दैवी प्रकाशन (revelation) पर आधारित है और उनके धर्म से मिश्रित है। सर अब्दुर्रहीम के शब्दों में “हुकुम वह है जो अल्लाह के पैगाम (खिताब) के द्वारा, इन्सान के क्रियाकलाप के सन्दर्भ में मांग या उदासीनता जाहिर करते हुए या मात्र घोषणात्मक (Declaratory) रूप में कायम किया गया हो।” इसलिये मुस्लिम विधिशास्त्र का पहला सिद्धान्त है ख़ुदा में ईमान या निष्ठा और कार्यों पर उसके प्राधिकार की स्वीकृति। दूसरा सिद्धान्त है मोहम्मद साहब की पैगम्बरी में विश्वास । इस्लाम में अल्लाह ही एक मात्र विधायक है और अल्लाह के बाद सार्वभौम (Soverign) शक्ति जनता में निहित है। पैगम्बर मोहम्मद व्यवस्थाकार हैं और कुरान ही विधि का ग्रन्थ है। इस कारण कानून को धर्म से पृथक करना सम्भव नहीं है।
मुसलमान कौन है?
— प्रत्येक मुसलमान का धार्मिक कर्तव्य इस्लाम के पाँच सारभूत सिद्धान्तों पर केन्द्रीभूत है, जो निम्नलिखित हैं-
(1 ) तौहीद में पूर्ण विश्वास-मुसलमान’ शब्द “मुसल्लम ईमान” शब्द से निर्मित हुआ है। ‘मुसल्लम ईमान’ शब्द का तात्पर्य है पूर्ण आस्था। किस बात में ? कलमा में पूर्ण आस्था अर्थात् “लॉ इलाहा इल्लिल्लाह मोहम्मद उर रसूल उल्लाह” में आस्था इस कलमा का अर्थ है- अल्लाह (ईश्वर) केवल एक है पैगम्बर मोहम्मद अल्लाह के रसूल (दूत) हैं।
(2) नमाज– -यह मुस्लिम धर्म का दूसरा महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। मुसलमानों का यह धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे पाँच बार (प्रातः, मध्यान्ह, मध्यान्ह के पश्चात् सूर्यास्त और रात्रि में) मक्का की तरफ अपना मुख करके नमाज (प्रार्थना) पढ़े। शुक्रवार के दिन सभी पुरुषों के लिये दोपहर के समय सामूहिक नमाज आवश्यक है।
( 3 ) जकात (दान) – मुसलमानों का तीसरा धार्मिक कर्तव्य यह है कि वे अपनी आय का कुछ भाग गरीबों और फकीरों को दान करें और पुण्यार्थ संस्थाएं चलावें ।
( 4 ) रोजा – इस प्रयोजन के लिये रमजान का महीना सबसे पवित्र माना गया है और प्रत्येक मुसलमान को प्रातः काल से सूर्यास्त तक सभी भोजन-पानी आदि से विरत रहना चाहिये।
(5) हज (तीर्थयात्रा) – इस्लाम धर्म का यह अन्तिम स्तम्भ है। ऐसे मुसलमानों को, जो व्यय वहन करने में समर्थ हों, जीवन में एक बार वर्ष के एक विहित समय में, मक्का का पवित्र दर्शन अवश्य करना चाहिये।
:-किन्तु न्यायालयों के प्रयोजनार्थ, उपर्युक्त पाँचों सिद्धान्तों का पालन करना मुस्लिम होने के लिये आवश्यक नहीं है। ऐसा निर्णीत किया गया है कि मुस्लिम विधि के प्रयोजनों के लिये, वह व्यक्ति मुस्लिम माना जायेगा जो तौहीद और रसूल में विश्वास करता है अर्थात् जो यह विश्वास करता है कि प्रथमतः खुदा एक है और एक के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं, द्वितीयतः यह कि मोहम्मद साहब खुदा के दूत या रसूल थे।
:-अमीर अली का कथन है कि जो कोई इस्लाम धर्मावलम्बी है, अर्थात् जो अल्लाह के एकत्व और मोहम्मद की पैगम्बरी में विश्वास करता है, वह मुसलमान है। नरौतकर्थ बनाम पारखल के वाद में यह धारित किया गया था कि इस्लाम का सारभूत सिद्धान्त यह है कि अल्लाह एक है और मोहम्मद उसके रसूल (या दूत) हैं और इसके अतिरिक्त और कोई विश्वास कम से कम विधि के न्यायालयों के लिये निष्प्रयोज्य है।
मुस्लिम विधि का उद्भव (Origin):-
—मुस्लिम विधि का उद्भव ‘अल कुरान’ या ‘कुरान’ से हुआ है, जिसका अस्तित्व अल्लाह की सत्ता में आदिकाल से माना जाता है। पैगम्बर मोहम्मद ने खुद यह कहा है कि वह फरिश्ता जिब्राइल के द्वारा विभिन्न भागों में और विभिन्न अवसरों पर प्रकाशित किया गया। उसकी आयतें”कलामे अल्लाह’ (अल्लाह की वाणी) होने की वजह से प्रश्नातीत (inquestionable) और निश्चायक समझी जाती हैं। धर्म, आध्यात्म के अलावा ‘कुरान’ में विधिशास्त्र का भी समावेश है, जो ‘शरअ’ का मुख्य आधार है।
कुरान और परम्परा (Tradition):-
मूलतः मुस्लिम विधि दो आधारों पर आधारित है-‘कुरान और परम्परा’ विधि को स्पष्ट करने के लिये मुस्लिम विधिवेत्ता इस्लाम के पूर्व की रूढ़ियों का जिक्र नहीं करते। वस्तुतः मोहम्मद के आचार (Tradition) में उनके सुन्ना (आचरण) तथा अहादिश (उपदेश या वक्तव्य) दोनों ही सम्मिलित हैं।
पैगम्बर साहब की परम्परा ‘सुना: और अहादिस‘ –
पैगम्बर साहब के देहावसान के बाद ईश्वरीय प्रेरणा के जीवित स्त्रोत का अन्त हो गया। धार्मिक और सांसारिक नेतृत्व में उनके उत्तराधिकारियों का ईश्वरीय — प्रेरणा का कोई दावा नहीं था। वे ‘कुरान’ को ही इस दुनिया और दूसरी दुनिया के लिये मार्गदर्शक मानते थे। उसका सम्मानपूर्वक स्मरण, पाठ, अभिलेख, अध्ययन और पालन किया जाता था। नयी समस्याओं का हल पैगम्बर साहब के जीवन की घटनाओं और उनकी उक्तियों के मतलब लगाकर उनके साथियों द्वारा किया जाता था। पैगम्बर साहब ने कहा था कि “दो मार्गदर्शक छोड़े जाता हूँ-एक ‘कुरान’ और दूसरा अपना आचार ‘सुन्त्राः‘। ‘कुरान’ के मूल पाठ को इस्लाम के सभी फिरके स्वीकार करते थे, लेकिन ‘हदीस’ के, जो पैगम्बर की उक्तियों और उनके कार्यों के अभिलेख थे, अर्थान्वयन विभिन्न थे और जब हम उनके प्रयोग पर नजर डालते हैं तो हम विधि की विभिन्न विचार पद्धतियाँ देखते हैं। यद्यपि ‘सुन्नाः’ और ‘हदीस’ अभिलेखबद्ध नहीं किये गये थे, फिर भी समय-समय पर झगड़े तय करने में और पैगम्बर साहब द्वारा निषिद्ध कार्य करने से रोकने में उनके उत्तरजीवी साथी उन्हें उपयोग में लाते थे।
:-जिस प्रश्न का कोई जिक्र ‘कुरान’, ‘हदीस’ या ‘सुन्ना’ में नहीं होता था, उनके सम्बन्ध में ‘इजमा’ यानी उस युग के विधिवेत्ताओं के मतैक्य से और उसके अभाव में ‘क्यास’ यानी विवेक और दलील से कुछ निश्चित नियमों की सहायता से काम लिया जाता था। ये हो सिद्धान्त मुस्लिम धार्मिक विधि या ‘शरिअत’ के आधार थे।
‘शरिअत’ का तात्पर्य‘
-‘शरिअत’ का शाब्दिक अर्थ है-‘जलाशय की सड़क या अनुसरणीय मार्ग। यह शब्द पूरी मुस्लिम धार्मिक विधि का द्योतक है।” आधुनिक भाव में यह कानून नहीं है, मगर एक अचूक मार्गदर्शक है।” यह मूलतः कर्तव्य का सिद्धान्त है तथा अपने में पूर्ण (Comprehensive) है।
धार्मिक आदेश (Religious Injunctions) –
‘शरिअत’ के अन्तर्गत पांच तरह के धार्मिक आदेश (मजहबी अहकाम) हैं-
(1 ) फर्द (Fard)-जो सख्ती से मुसलमानों पर लागू है, उदाहरणार्थ, प्रतिदिन पाँच बार नमाज पढ़ना फर्द है।
( 2 ) हराम (Haram) – जो मुसलमानों के लिये वर्जित है, उदाहरणार्थ, शराब पीना हराम है।
(3) मन्दूब (Mandub ) — जिनके पालन की मुसलमानों को सलाह दी गई है, उदाहरणार्थ, ईद के समय अतिरिक्त नमाज पढ़ना मन्दूब है।
(4) मकरूह (Makruh ) — जिन्हें न करने की मुसलमानों को सलाह दी गई है, उदाहरणार्थ, कुछ विशेष प्रकार की मछलियाँ खाना मकरूह है।
(5) जायज (Jaiz) – वे बातें जिनके प्रति इस्लाम उदासीन है, उदाहरणार्थ, हवाई जहाज से यात्राकरना जायज है।
:-फिकह:-फिकह का शाब्दिक अर्थ है- प्रज्ञा यानी तीव्र बुद्धि। फैजी द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार- ‘फिकह’ मनुष्य के अधिकारों और कर्तव्यों (Obligations) की वह जानकारी है जो उसने ‘कुरान’ सुन्ना’, या विधिवेत्ताओं की एकमत राय (Ijma, the Consensus of opinion) अथवा कियास (Anology सादृश्य) से निष्कर्षित नियम से प्राप्त किया हो। विधिशास्त्र का पूरा विज्ञान फिकह कहलाता है, क्योंकि कुरान या सुन्ना से उपलब्ध स्पष्ट आदेश के अभाव में किसी कानूनी पहलू के विनिश्चय से प्रज्ञा का स्वतन्त्र प्रयोग उपलक्षित होता है। वह केवल कानूनी कामों का संव्यवहार करता है और ‘शरिअत’ से संकीर्ण है, जिसमें इंसान के हर तरह के काम सम्मिलित हैं। ‘शरिअत’ हमेशा ही देवी सन्देश की याद दिलाती है, अर्थात् उस ‘इल्म’ या जानकारी की, जो ‘कुरान’ या ‘हदीस’ के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती। ‘फिकह’ में तर्क शक्ति पर जोर दिया गया है और ‘इल्म’ (ज्ञान) पर आधारित अनुमानों का निरन्तर आशंका के साथ उल्लेख किया जाता है। ‘शरिअत’ के रास्ते खुदा और पैगम्बर के बनाये हुये हैं और ‘फिकह’ की इमारत इन्सान की कोशिश से बनी है।
मुस्लिम विधि का विकास –
:-मुस्लिम विधि की प्रक्रिया पाँच कालों में विभाजित की जा सकती है और उसकी विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है- –
(1) कुरान के आदेशों का काल – यह काल हिज्री सन् 1 से 10 (622 ई० से 632 ई०) तक है। मक्का से ‘हिज्रा’ या पलायन के समय (सन् 622 ई०) से मुस्लिम युग आरम्भ होता है। क्योंकि मोहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों को इकट्ठा करके मक्का वालों को बदर की लड़ाई (सन् 623 ई०) से पराजित किया, तदुपरान्त सफलता के दस वर्षों (हिज्री सन् 1 से 10) का समय आरम्भ हो गया। पैगम्बर के जीवन लक्ष्य (Mission) की कहानी में हिज्री एक स्पष्ट विभाजन कर देता है जो कुरान से प्रत्यक्ष है। 622 ई० (हिज़ा) तक वे प्रचारक मात्र थे और तदुपरान्त राज्य के शासक हो गये। कुरान की अधिकांश कानूनी आयतें इसी काल में प्रकाश में आई। अल्लाह का प्रथम सन्देश मोहम्मद साहब को मक्का में 609 ई० में प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् समय-समय पर उन्हें दैवी सन्देश प्राप्त होते रहे जिसे वे मक्कावासियों को बताया करते थे, परन्तु मक्कावासी उन सन्देशों के ईश्वरीय सन्देश होने में अविश्वास रखते थे। मक्का के दैवी सन्देश धार्मिक या आध्यात्मिक प्रकृति के होते थे। 622 ई० में मोहम्मद साहब मदीना गये, जहाँ पर लोगों ने उन दैवी संदेशों पर आसानी से विश्वास कर लिया। मदीना के दैवी संदेश प्रायः लोगों के आचरणों को नियमित करने के लिये दिये गये, अतः मदीना के देवी सन्देश विधि (फिक) से सम्बन्धित थे। इस प्रकार मोहम्मद साहब के देहावसान के पूर्व के अन्तिम दस वर्ष मुस्लिम विधि के विधि निर्माण की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। अधिकांश विधिक नियम इस काल में ख़ुदा के शब्दों के माध्यम से या मोहम्मद साहब के शब्दों में निर्मित किये गये। अब्दुर्रहीम ने इस काल को इस्लाम का विधायी काल (Legislative period) कहा है। पैगम्बर साहब के देहावसान के साथ ही साथ ईश्वरीय प्रेरणा का सीधा स्रोत समाप्त हो गया। यह काल ‘कुरान और परम्पराओं (सुत्राः) का काल’ समझा जाता है।
(2) सुन्ना के संग्रह का काल – यह काल हिज्री सन् 10 से 40 तक है। मुहम्मद साहब के देहावसान के बाद उनके चार उत्तराधिकारियों ने (जो खुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी न्यायशील खलीफा कहलाते हैं) पैगम्बर के समान ही मुस्लिम साम्राज्य का शासन चलाया। पैगम्बर मुहम्मद के विचार और आदर्श वाले ‘असहाब’ (साथियों) की एक मन्त्रणा समिति इन खलीफाओं की सक्रिय सहायता करती थी। पैगम्बर मोहम्मद को मृत्यु के पश्चात् मुस्लिम समाज के सम्मुख यह समस्या उत्पन्न हुई कि उनका उत्तराधिकारी कौन हो? अधिकांश व्यक्तियों का मत था कि उत्तराधिकारी का निर्वाचन होना चाहिये। परिणामतः निर्वाचन द्वारा अबू बक्र को उत्तराधिकारी बनाया गया। इस प्रकार अबू बक्र प्रथम खलीफा बने और उन्होंने मुस्लिम समाज का नेतृत्व अपनी मृत्यु के समय (सन् 634 ई०) तक किया। उनकी मृत्यु के पश्चात् दूसरा खलीफा हजरत उमर को चुना गया। उमर दस वर्षों तक खलीफा रहे। उनकी हत्या सन् 644 ई० में कर दी गयी, उनके पश्चात् हजरत उस्मान का निर्वाचन खलीफा के रूप में किया गया। वे बारह वर्षों तक खलीफा के पद पर कार्यरत रहे। परन्तु उनकी भी सन् 656 में हत्या कर दी गई। तत्पश्चात् पैगम्बर मोहम्मद साहब के चचेरे भाई और दामाद (मोहम्मद साहब की लडकी फातिमा के पति) हज़रत अली का चौथे खलीफा के रूप में चुनाव किया गया परन्तु सन् 661 ई० में अली भी मार डाले गये। चौथे खलीफा ‘अली’ की शहादत के बाद यह काल समाप्त होता है। इसके बाद ‘मोआविया’ गद्दी पर बैठे (हिज्री सन् 40) और ओमेदिया राजघराने का शासन आरम्भ हुआ। इस काल में पैगम्बर के चरित्र और उक्तियों का अनुसरण किया गया। तीसरे खलीफा उस्मान के समय में ‘कुरान’ संग्रह करके लेखबद्ध किया गया।
( 3 ) सैद्धान्तिक अध्ययन और संग्रह का काल – यह काल सन् 661 ई० से सन् 900 ई० तक है। इस काल में (ओमय्यद वंश के शासन के समय में) सुन्नत (Sunna) का विधि स्रोत होना पूरी तौर से समझ में आया। विधि के नियम या “इब्न खेल्दु” के शब्दों में, अल्लाह के आदेश और निषेध उस समय (किताबों में नहीं) इन्सानों के दिलों में रहते थे, जो यह जानते थे कि इन सिद्धान्त वाक्यों का उद्भव “अल्लाह के ग्रंथ या पैगम्बर के आचारों और उक्तियों’ से हुआ है। इन परिस्थितियों में हदीसों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि यह आवश्यक हो गया कि उनका संग्रह किया जाये और प्रामाणिक हदीसों को अप्रामाणिक और फर्जी हदीसों से अलग कर दिया जाय। बुखारी और मुस्लिम द्वारा वर्णित हदीसों को मान्यता दी गयी। ‘अबू इब्न सुहराब अज-जुअरी’ ने हिज्री सन् 99 से 101 तक हदीसों का पहली बार संग्रह किया। लगभग उसी समय के ‘अब्दुल मलिक इब्न जुरैज’ ने भी उनका संग्रह किया। ये संग्रह विषय वस्तुओं के अनुसार नहीं, बल्कि उनका बयान करने वालों (साथियों) के नामों के अनुसार विन्यस्त (Arranged) थे और इसलिये “मसनद’ कहलाये। मलिक इब्न अनास ( मृत्यु हिज्री सन् 129) के मुवत्ता के प्रकाश में आने पर “मुसनफ’ अर्थात् विषयों के अनुसार विन्यस्त और वर्गीकृत (Classified) संग्रह की प्राप्ति हुई। यह पुस्तक मुस्लिम विधि का प्रथम महान ग्रंथ है।
:-हिज्री सन् 127 में ओमय्यद खलीफा मारवान को गद्दी से उतार दिया गया और साम्राज्य बगदाद के पहले अब्बासी खलीफा अस-सफ्फाह के हाथों में चला गया। मुस्लिम दुनिया के हर हिस्से से इस्लाम के ज्ञाता (आलिम) अब्बासी खलीफाओं के दरबार में इकट्ठे हुए और विधि का अध्ययन सैद्धान्तिक क्रम से किया। इसी काल में ‘अबू हनीफा’ (हिज्री 80-150) हुए, जिनकी हनफी विचारधारा सुत्री शाखा को चारों विचारधाराओं में उदार हैं, क्योंकि यह कियास (सादृश्य निष्कर्ष) में विश्वास करती है। हदीस के ज्ञान का उस समय तक क्रमशः विकास नहीं हुआ था। ‘मलिक इब्न अनास’ (हिज्री 95-175), ‘अस सौरी’ (हिज्री 95-161), ‘अश शफी’ (हिज्री 150-204), ‘इब्न हनबल’ (हिज्री 164-241) और “अज जहूरी’ (हिज्री 202-270 ) महान् मुस्लिम विधिवेत्ता हुए हैं। इसी काल में इजमा और कयास के सिद्धान्त पूर्ण किये गये, जिनसे मुस्लिम विधिशास्त्र का विकास हुआ।
(4) इन्तिहाद और तकलीद के विकास का काल – यह काल चारों सुत्री शाखाओं की स्थापना के समय से प्रारम्भ होता है और 1924 ई० तक जारी रहता है। चार बड़े इमामों-अबू हनीफा, मलिक इनअनास, अश शफी और इब्न हनबल के बाद मुस्लिम विधि के विधिवेत्ताओं ने निर्वाचन (Interpretation) की प्रक्रिया को जारी रखा। इस काल में ‘इज्तिहाद’ (Independent Interpretation) : स्वतंत्र अर्थान्वयन) और” तकलीद” (To follow : अनुसरण) के नाम के दो समरूप सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ। ‘इज्तिहाद’ का मतलब है- शुद्ध मत या निर्णय पर पहुँचने के लिये गहरा अध्ययन और ऐसा करने वाले ‘मुज्तहिद’ कहे जाते हैं, ‘तकलीद’ का मतलब है-दूसरे की राय बिना उसकी प्रामाणिकता की जानकारी के अनुसरण। चूंकि हर व्यक्ति शरिअत के नियमों को नहीं जान सकता था, इसलिये जानकारों की राय अनुसरणीय कही गयी और इस तौर से तकलीद का सिद्धान्त विकसित हुआ। चारों सुन्नी शाखाओं के प्रवर्तकों की मृत्यु के पश्चात् कोई मुस्लिमविधिवेत्ता उन प्रवर्तकों की कोटि का नहीं पैदा हुआ जो विधि के नये सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर सकता।परिणामस्वरूप उन चार विधिवेत्ताओं के द्वारा निर्मित विधिक नियमों का समाज द्वारा अनुसरण किया गया।इस प्रकार तकलीद के सिद्धान्त (अनुसरण के सिद्धान्त) का विकास हुआ।
:-पंचम काल (1924 ई० से वर्तमान समय तक ) – सन् 1924 ई० में खलीफा के पद को समाप्त कर दिया गया। 1924 ई० के पश्चात् धार्मिक प्रधान के रूप में कोई खलीफा नहीं हुए जो मुस्लिम धार्मिक विधि (शरिअत) को लागू कर सके। इसलिये आधुनिक काल में शरिअत को मुस्लिम विधि से अलग कर दिया गया है। शरिअत को लागू करने के लिये कोई उपयुक्त प्राधिकारी न होने के कारण शरिअत केवल नैतिक आचार संहिता रह गयी है जबकि मुस्लिम विधि के पीछे राज्य की शास्ति (Sanction) प्राप्त है। इस्लामिक देशों में आधुनिक काल में (उदाहरणार्थ- टर्की, मिस्र, ट्यूनिशिया में) विधि के संहिताकरण का ऐसा प्रयास किया गया है कि शरिअत के मूलभूत चरित्र को सुरक्षित रखते हुए विधि को आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्मित किया जाय।