परिभाषा (Definition)-
विल्सन के अनुसार :- मेहर एक ऐसी धनराशि है जो इस कारण दी जाती है कि पत्नी ने पति को अपने शरीर को अर्पित कर दिया है।
डी एफ मुल्ला के अनुसार :- मेहर एक ऐसी धनराशि या संपत्ति है जिसको विवाह के प्रतिकर के रूप में प्राप्त करने के लिए पत्नी हकदार है।
मेहर का उद्देश्य–
1) पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में पति पर एक दायित्व है।
2) पति द्वारा तलाक के मनमाने उपयोग पर एक अवरोध रखना।
मेहर के प्रकार–
1) निश्चित मेहर(मेहर-इ-मुसम्मा)
2) अनिश्चित मेहर(उचित मेहर) मेहर-इ-मिस्ल
रकम के आधार पर मेहर दो भागों में बांटा जा सकता है-
1) निश्चित मेहर (Specified Dower) :- जब मेहर की रकम निश्चित होती है भले ही उसका भुगतान विवाह के समय या उसके बाद तलाक या मृत्यु के बाद किया जाना हो तो उसे निश्चित मेहर कहते हैं।
2) अनिश्चित मेहर (Unspecified Dower)– जब मेहर की रकम निश्चित न की गई हो. ऐसी स्थिति में जो मेहर निश्चित किया जायेगा उसे अनिश्चित या उचित मेहर कहा जायेगा। इसे रिवाजी मेहर या मेहर ए मिस्ल भी कहते हैं।
रिवाजी मेहर का निर्धारण इन आधारों पर किया जाता है :-
1) पत्नी की निजी योग्यताए, जैसे उसकी आयु सौंदर्य समझदारी आदि।
2) उसके पिता के खानदान की सामाजिक स्थिति
3) उसके पितृपक्ष के संबंधी स्त्रियों को दिया गया मेहर
4) उसके पति की आर्थिक स्थिति,
5) तत्कालीन परिस्थितियों।
केस- हमीरा बीवी बनाम जुबेदा बीवी (1916) प्रीवी काउंसिल ने कहा कि मुस्लिम विधि में मेहर विवाह की आवश्यक प्रसंगति है और यदि विवाह के समय इसका उल्लेख नहीं किया गया है तो भी इसको निश्चित करना आवश्यक है।
समय के आधार पर मेहर को दो भागों में बांटा जा सकता है-
1) तात्कालिक या मुअज्जल मेहर (Prompt Dower)- तात्कालिक मेहर की धनराशि विवाह के समय तुरंत दी जाती है और पत्नी की मांग पर पति के द्वारा इसकी तुरन्त अदायगी ज़रूरी होती है। वह विवाह के पहले या बाद किसी भी समय वसूल किया जा सकता है यह पत्नी की मांग पर देय होता है।
2) स्थगित या मुवज्जल मेहर (Deferred Dower)- इस मेहर की अदायगी तलाक या पति की मृत्यु के बाद की जाती है. इसलिए पत्नी मेहर की मांग विवाह के विघटन से पहले नहीं कर सकती लेकिन यदि विवाह के विघटन से पहले उसके भुगतान करने का कोई करार हो तो ऐसा करार मान्य और बंधन कारी होता है। निश्चित घटना के घटित होने से पहले ही पत्नी मेहर की मांग नहीं कर सकती लेकिन पति इससे पहले भी ऐसा मेहर उसे अदा कर सकता है।
मेहर की विषयवस्तु– कोई भी निश्चित की गई वस्तु-
1) जिसका कुछ मूल्य हो
2) जो माल की परिभाषा में आता हो।
3) जो अस्तित्व में हो।
निम्र विषयवस्तु वर्जित की गई है-
1) वे वस्तुएं जो मेहर के रूप में निश्चित किए जाने के अस्तित्व में न हो जैसे अगले वर्ष की फसल।
2) वे वस्तुए जो मुस्लिमो के लिए निषिद्ध हो जैसे शराब इत्यादि।
3) पति की स्वयंकृत सेवा सुन्त्री विधि में मेहर की विषयवस्तु नहीं हो सकती लेकिन यदि पति पत्नी को एक निश्चित अवधि तक सेवा करने का वचन देता है तो वचन शिया विधि में मेहर हो सकता है।
4) ऐसी सम्पत्ति जो मेहर के लिए अवैध वह मेहर नहीं हो सकती।
मेहर का भुगतान न किए जने पर पत्नी को अधिकार-
1) पति के साथ संभोग करने से इनकार करना।
2) ऋण के रूप में मेहर की धनराशि का अधिकार।
3) मृतक पति की सम्पत्ति पर कब्जे का अधिकार।
1) समागम करने से इंकार– यदि मुअज्जिल मेहर का भुगतान नहीं किया गया और विवाह पूर्णावस्था को नहीं प्राप्त हुआ तो पत्नी को समागम से इंकार का अधिकार है। यदि पत्नी अवयस्क या अस्वस्थचित्त है तो संरक्षक को अधिकार है कि वह पति के घर भेजने से इंकार कर सकता है।
केस अनीस बेगम बनाम मालिक मोहम्मद इस्तफा (1933) न्यायमूर्ति सुलेमान ने कहा कि विवाह की पूर्णावस्था के बाद डिक्री सशर्त पारित हो सकती हैं और इसमें पत्नी को अलग आवास, दो नौकर और डिक्री का भुगतान किया गया।
2) ऋण के रूप में मेहर की धनराशि का अधिकार– पति के जीवन में पत्नी पति के विरुद्ध वाद लाकर मेहर प्राप्त कर सकती है यदि पति की मृत्यु हो गई है तब वह पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद ला सकती है लेकिन वे मेहर की अदायगी के लिए व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति तक ही उत्तरदायी होते है।
केस- हमीरा बीवी बनाम जुबेदा बीबी (1916)- प्रिवी काउंसलि ने कहा कि मेहर ऋण की श्रेणी में आता है और पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा अन्य ऋणदाताओं के साथ-साथ पति की सम्पत्ति में भुगतान पाने की अधिकारी होती है लेकिन यह पति की सम्पत्ति पर भार नहीं होगा।
3) संपत्ति पर कब्जे का अधिकार– यदि मेहर अदा नहीं किया गया है तो सम्पत्ति पर तब तक कब्जा बनाए रख सकती जब भुगतान ना कर दिया जाए।
केस- मैना बीबी बनाम चौधरी वकील अहमद (1924) न्यायाधीशों ने कहा कि सम्पत्ति पर कब्जा बनाए रखने का तो अधिकार है लेकिन विधवा उस सम्पत्ति को दान करने की शक्ति त नहीं रखती।
मेहर की प्रकृति (Nature of Dower)
मुस्लिम स्त्री का मेहर एक असुरक्षित ऋण है। वह अन्य ऋणदाताओ को अपने पति की सम्पत्ति से उनके ऋण को वसूल करने से रोक नहीं सकती। उसे एक विशेष प्रकार का अधिकार है कि वह अपने पति की सम्पत्ति पर कब्जा कर सकती है और सम्पत्ति को अपने कब्जे में तब तक बनाये रख सकती है जब तक कि उसका मेहर वसूल न हो पाये।
मेहर का महत्व (Importance of Dower)-
मुस्लिम विधि के अनुसार मेहर विवाह का आवश्यक अंग है। यदि निकाह के समय मेहर का कोई जिक्र नहीं किया गया है तो भी कानून अनुमान लगा लेता है कि मेहर अन्तर्निहित है। मुस्लिम विवाह में मेहर का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका प्रत्यक्ष कारण मुस्लिम स्त्री की आर्थिक दृष्टि से रक्षा करना है। मुस्लिम पति को अपनी पत्नी को तलाक देने का असीमित अधिकार है। पति स्वेच्छानुसार जब चाहे बिना किसी कारण के पनी को तलाक दे सकता है। इस प्रकार मेहर पति के असीमित तलाक तथा एक से अधिक विवाह करने के अधिकार पर रोक लगाता है।
मेहर प्राप्त करने के लिए वाद लाने की परिसीमा-पत्नी या विधवा को अपने मेहर की वसूली पति या उसके उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद दायर करके प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन मेहर की वसूली के लिए भारतीय परिसीमा अधिनियम 1963 में दी गई अवधि के अंदर ही वाद लाना जरूरी है, अन्यथा वाद खारिज हो जाता है। मेहर यदि मुअज्जिल है तो पत्नी द्वारा इसकी मांग करने की तारीख से तीन वर्ष के अंदर ही वसूली का वाद न्यायालय में दायर होना चाहिए।
केस- अब्दुल कादिर बनाम सलीमा (1886)- मेहर मुस्लिम विधि में वह धनराशि या सम्पत्ति होती है जिसे पति विवाह के प्रतिकर के रूप में पत्नी को देने का वादा करता है तथा यदि विवाह के समय इसका जिक्र न किया जाए तो भी कानून पत्नी को मेहर का हक प्रदान करता है।