:-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13ख में पारस्परिक सम्मति से विवाह विच्छेद के बारे में प्रावधान किया गया है। यह धारा हिन्दू विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ी गई है। इसके अनुसार विवाह में के दोनों पक्षकारों द्वारा विवाह विच्छेद के लिए सम्मिलित रूप से याचिका प्रस्तुत की जा सकती है। पारस्परिक सम्मति के आधार पर विवाह विच्छेद के लिए याचिका तभी प्रस्तुत की जा सकती है; जब-
(i) पति एवं पत्नी एक वर्ष या इससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हों;
(ii) वे एक-साथ रहने में असमर्थ हों; तथा
(iii) उन्होंने पारस्परिक सम्मति से विवाह विच्छेद कराना स्वीकार कर लिया हो अर्थात् वे पारस्परिक सम्मति से विवाह विच्छेद के लिए सहमत हों।
‘जय श्री बनाम रमेश’ (ए.आई.आर. 1984 मुम्बई 302 ) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पारस्परिक सम्मति से विवाह विच्छेद के लिए इन तीनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
:-जब किसी मामले में यह तीनों शर्तें पूरी हो जाती है तो न्यायालय से विवाह- विच्छेद की डिक्री पारित किये जाने की अपेक्षा की जाती है (ओम प्रकाश बनाम नीलमणि ए.आई.आर. 1986 आन्ध्रप्रदेश 163 तथा इन रि के. एस. सुब्रह्मन्यम् ए.आई.आर. 2002 मद्रास 228)
:-पृथक् पृथक् रहना:-पारस्पारिक सम्मति के आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री के लिए यह आवश्यक है कि पति-पत्नी एक वर्ष या इससे अधिक अवधि से पृथक्-पृथक् रह रहे हो। “कीर्ति भाई बनाम प्रफुल्ल बेन’ (ए.आई.आर. 1993 गुजरात III) के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि पृथक्-पृथक् रहने से अभिप्राय पति पत्नी की तरह नहीं रहने से है। यदि पति-पत्नी एक स्थान पर रहकर भी पति-पत्नी की तरह नहीं रहते हैं तो इसे पृथक्-पृथक् रहना माना जायेगा।
:-‘जितेन्दर बनाम गीता देवी’ (ए.आई.आर. 2012 एन.ओ.सी. 144 पंजाब एण्ड हरियाणा) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विवाह के एक वर्ष के भीतर पारस्परिक सहमति के आधार पर विवाह विच्छेद की याचिका दायर नहीं की जा सकती। इस मामले में पक्षकारों का विवाह दिनांक 5.12.2004 को तथा विवाह विच्छेद की याचिका दिनांक 23.3.2005 को दायर की गई। इसे संधारण योग्य नहीं माना गया।
:-साथ-साथ रहने में असमर्थता:-पारस्परिक सम्मति के आधार पर विवाह विच्छेद की दूसरी शर्त पति-पत्नी का एक साथ रहना असम्भव हो जाना है। ‘समिष्ठा बनाम ओमप्रकाश’ (ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 1904) के मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब पति-पत्नी के बीच इतनी कटुता उत्पन्न हो जाती है कि उनका एक साथ रहना नितान्त असम्भव हो जाता है तब विवाह विच्छेद की डिक्री पारित की जा सकती है।
:-विपिन कुमार सामल बनाम मिनर्वा स्वेन (ए.आई.आर. 2016 उड़ीसा 41 ) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ वैवाहिक जीवन में ऐसी दरार पड़ गई हो कि उसका जुड़ना असम्भव हो गया हो, वहाँ पारस्परिक सहमति के आधार पर विवाह विच्छेद की डिक्री पारित किया जाना उचित है।
:-अन्य आधार आवश्यक नहीं है:-यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पारस्परिक सम्मति के आधार पर विवाह विच्छेद की याचिका में अन्य किसी आधार का उल्लेख किया जाना आवश्यक नहीं है और न हो अन्य किसी आधार का उल्लेख किया जाना चाहिये, जैसा कि ‘रवि बनाए शारदा’ (ए.आई. आर. 1978 मध्यप्रदेश 44) के मामले में सुनिश्चित किया गया है।
:-संयुक्त प्रस्ताव आवश्यक:– पारस्परिक सम्मति के आधार पर विवाह विच्छेद के मामलों में याचिका का पति एवं पत्नी दोनों की ओर से संयुक्त रूप से किया जाना आवश्यक है। 1. गिरिजा बनाम विजय नन्दन, ए.आई. आर. 1995 केरल 159 )सामति देने के बाद वापस ली जा सकती है?
:-कई बार यह प्रश्न उठता है कि क्या विवाह विच्छेद के लिए सम्मति देने के पश्चात् उसे वापस लिया जा सकता है? ‘जय श्री बनाम रमेश’ (ए.आई.आर. 1984 मुम्बई 302 ) तथा ‘नछत्तर सिंह बनाम हरचरण कौर’ (ए.आई.आर. 1986 पंजाब हरियाणा 20) के मामलों में इसका नकारात्मक उत्तर देते हुए यह कहा गया है कि एक बार स्वीकृति या समति देने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता है; क्योंकि यदि ऐसे वापस लेने की अनुमति दी जाती है तो धारा 13 ख का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा।
:-लेकिन सन्तोष बनाम वीरेन्द्र’ (ए.आई.आर. 1986 राजस्थान 62), ‘सुरेष्टा बनाम ओमप्रकाश’ (ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 1904) तथा ‘अशोक बनाम रुपा’ (जे.टी. 1997 एस.सी. 483) आदि के मामलों में यह कहा गया है कि ऐसी सम्मति को डिक्री पारित होने से पूर्व कभी भी वापस लिया जा सकता है। कहा तो यहाँ तक गया है कि सम्मति का डिक्री पारित होने रुक बने रहना)आवश्यक है।
:-‘रूपाली उर्फ चेतना बनाम सुनील दत्त’ (ए.आई. आर. 2006 पंजाब एण्ड हरियाणा 93) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सम्मति पट अथवा असभ्य असर द्वारा प्राप्त की गई हो, वहाँ इसका विवाधक बताकर इसे साबित कराने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पत्नी की सम्मति का विक्री पारित होने तक बने रहना आवश्यक है। पत्नी डिक्री पारित होने से पूर्व कभी भी अपने सम्मति को वापस ले सकती है।
:-एम.एस. कुमार बनाम के.एस. यशोदा (ए.आई.आर. 2019 एन.ओ.सी. 153 मदास) के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है। कि-यदि पत्नी पारस्परिक सहमति के आधार पर विवाह विच्छेद के लिए सहमत नहीं हो तो विवाह विच्छेद की डिक्री पारित नहीं की जा सकती है।
:-सम्मति द्वारा प्रथागत विवाह विच्छेद’:–
यामनजी एच. यादव बनाम निर्मला’ (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 971 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालय द्वारा पारस्परिक सम्मति द्वारा प्रथागत विवाह विच्छेद को तब तक मान्यता नहीं दी जा सकती जब तक कि वह विनिर्दिष्टतया किसी विधि द्वारा अनुमत्त न हो। ऐसा प्रथागत विवाह विच्छेद सामान्य विधि का अपवाद हो सकता है लेकिन ऐसी प्रथा का अभिकथित एवं स्थापित किया जाना आवश्यक है।
:-पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद होने पर सन्तान की अभिरक्षा के बारे में पक्षकार द्वारा स्वयं निर्णय लिया जा सकता है। (श्रीमती दीपा देवी बनाम धीरज कुमार सिंह, ए.आई.आर. 2006 झारखण्ड 29 )।
अपील:-पारस्परिक सहमति के आधार पर पारित विवाह विच्छेद की डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकती है यदि वह विधि के विरुद्ध अथवा कपट या धोखे से अभिप्राप्त की गई है। (एस. राजकनू बनाम आर, सनमूगाप्रिया, ए.आई. आर. 2016 मद्रास 42 )