:-विधि के स्रोत से तात्पर्य उन मौलिक सामग्रियों से है जिनसे विधि की विषय-वस्तु प्राप्त की जाती है। मुस्लिम विधि के स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) प्रधान स्रोत (Primary Sources),

(ख) गौण स्रोत (Secondary Sources) ।

() प्रधान स्त्रोत (Primary Sources)

1. कुरान– कुरान मुस्लिम विधि का सर्वोच्च और सार्वत्रिक (Paramount and universal) प्रमाण है। उसमें अल्लाह के द्वारा अपने पैगम्बर को दिया गया दैवी संदेश निहित है। कुरान 114 अध्यायों (सुरा) का एक ग्रन्थ है। कुरान के सभी अध्याय हजरत मोहम्मद के व्यक्तिगत निर्देशानुसार उनके अनुयायियों द्वारा व्यवस्थित किये गये हैं। जब भी कोई आयत (verse) नाज़िल होती तो हज़रत मोहम्मद स्वयं बताते कि इसे किस अध्याय में जोड़ना है।

कुरान में कुल 6666 आयतें हैं, जिनमें से लगभग दो सौ आयतें विधिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित हैं। विधि से सम्बन्धित आयतों में से लगभग 80 आयतें पारिवारिक विधि (विवाह, मेहर, तलाक और विरासत) से सम्बन्धित हैं। कुरान स्वतः कोई पूर्ण संहिता नहीं है। वह संहिता के रूप में नहीं वरन् खण्डों में प्रकट हुआ है। वह लगभग 23 वर्षों (सन् 609-632 ई०) में प्राप्त हुआ और पैगम्बर साहब के जीवन काल में संग्रहीत और क्रमबद्ध नहीं किया गया। अबू बकर ने, जो पैगम्बर साहब के बाद खलीफा हुए और सन् 634 ई० में मरे, पहली बार कुरान के विभिन्न लेखांशों का संग्रह कराया। फिर 16 वर्ष बाद तीसरे खलीफा उस्मान ने उसका पुनरावलोकन कराया। इस पवित्र किताब को अध्यायबद्ध करने का कार्य निम्नलिखित सहाबियों के निर्देशन में हुआ और इन्होंने ही कुरान के संकलन का कार्य भी किया। ये हैं-जैद (हजरत साबित के पुत्र), अब्दुल्लाह (जुबैर के पुत्र), सईद (आस के पुत्र) और अब्दुल रहमान (हैरिस के पुत्र)। इस कार्य को अत्यन्त ही सावधानी और तुलनात्मक विधि द्वारा पूर्ण कर खलीफा को भेंट किया गया। खलीफा ने इस ग्रन्थ की बहुत सी प्रतिलिपियाँ बनवाकर इस्लाम के विभिन्न केन्द्रों पर भिजवाया और इस पवित्र किताब की ही बाद में और प्रतिलिपियाँ बनवाई गई। कुरान के अन्य पाठान्तरों को जो दूसरे व्यक्तियों के कब्जे में थे, लेकर जला दिया गया। हज़रत मोहम्मद साहब भी अपने साथियों से कहा करते थे कि कुरान को दिल से याद कर लिया करो और लिखा करो। इसी कारण मुसलमानों का इस पवित्र किताब से इतना प्रेम एवं लगाव है कि इसके संग्रह के लगभग एक हजार वर्ष से अधिक समय बीत जाने के पश्चात् भी वह अपने उसी मूल (original) रूप में मौजूद है।

:-कुरान की प्रमुख विशेषताएं अधोलिखित हैं-

(1) वह समय और महत्व की दृष्टि से मुस्लिम-विधि का प्रधान स्रोत है।

(2) उसमें पैगम्बर मोहम्मद से कहे गये अल्लाह के ही शब्द अन्तर्विष्ट हैं।

(3) वह कोई संहिता (Code) नहीं है। तैय्यबजी का यह अवलोकन है कि कुरान संहिता न होकर एक संशोधनकारी (Amending) अधिनियम है।

(4) मूलतः उसका उद्देश्य था— (क) सामाजिक सुधार, जैसे-सूदखोरी, बहुविवाह, जुआ आदिदूषित रिवाजों को दूर करना, और

(ख) दण्ड के नियमों को लेखबद्ध करना।

(5) कुरान सुरा या अध्यायों में विभक्त है और इनकी संख्या 114 है। प्रत्येक अध्याय का अलग- अलग नाम है। ये अध्याय काल क्रम से नहीं रखे गये हैं वरन् प्रथम अध्याय को छोड़कर सबसे बड़ा अध्याय पहले, तब उससे छोटा, फिर उससे छोटा इत्यादि लघुतर क्रम में रखे गये हैं।

(6) कुरान केवल विधि ग्रन्थ ही नहीं वरन् इसमें मजहब (धर्म), नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की बातों की बहुतायत है धर्म, विधि और नैतिकता की बातें कहीं-कहीं इस प्रकार मिश्रित हैं कि होने पर तो करना आसान नहीं है ऐसा विश्वास किया जाता है कि धर्म और नैतिकता संबंधी कुरान की आयतें मक्का में प्रकट हुई और विधि संबंधित आए थे मदीना में उतरी विधि संबंधी आए तो की संख्या 200 है जो विभिन्न अध्याय में बिखरी पड़ी है।

कुरान विधि के स्त्रोत के रूप में:-

इस्लामिक विधि के स्रोत के रूप में कुछ नियम (लेख) कुरान के निम्न अध्यायों में मिलते हैं। जैसे- अलबकर (गाय), अल-इमरान (इमरान का परिवार), अल-निसा (औरत), अल-मैदा (भोजन), अन्-नूर (रोशनी) और बनी इस्राइल (इसाल का परिवार)।

इन अध्यायों में निहित नियम निम्रलिखित विषयों से सम्बन्धित हैं-

(i) अवैध रिति-रिवाजों का दमन जैसे बालिका-बंध, जुआ, शराब पीना, बहु विवाह इत्यादि।

(ii) सामाजिक सुधार जैसे विवाह, तलाक, स्त्री की स्थिति, पर्दा इत्यादि ।

(ii) अपराध विधि में चोरी, वध इत्यादि की सजा से सम्बन्धित ।

(iv) दुश्मन के साथ व्यवहार तथा सम्पत्ति के विभाजन से सम्बन्धित निर्देश ।

(v) युद्ध एवं शान्ति को अन्तर्राष्ट्रीय विधि, तथा जिम्मी (Non-muslim) की सम्पत्ति तथा उसके साथ व्यवहार।

:-इस्लाम से पूर्व नाज़िल (revealed) विधि की वैधिकता:-

इस्लाम से पहले भी अल्लाह को किताब नाजिल हुई जैसे—तौरात, जुबूर तथा इंजील और इन सब में विधि के नियम दिये गये हैं। जहाँ तक इन नियमों की वैधानिकता का प्रश्न है, विधिवेत्ता इस पर एकमत नहीं हैं। हनफी स्कूल का मानना है कि पूर्व धर्मों के नियमों को मानना तब तक जरूरी नहीं जब तक कि उसके सम्बन्ध में क़ुरान में स्वीकृति न दी गई हो। इसका कारण यह हो सकता है कि अल्लाह की वे किताबें अब अपने वास्तविक रूप में उपलब्ध नहीं हैं।

:-अर्थान्वयन करने में कुरान प्राचीन व्याख्याओं में दी हुई सुव्यवस्थाओं (rulings) के अधीन हैं। आगा मोहम्मद बनाम जफ्फार कुलसुम बीबी के बाद में प्रिवी काउन्सिल के मान्य न्यायाधीशों ने यह धारण किया कि जब कुरान के किसी लेखांश का हेदाया या इमामिआ में किसी विशेष रूप से अर्थान्वयन कर दिया गया हो तो न्यायालयों को उसका कोई भिन्न अर्थ लगाने का अधिकार नहीं है।

:-2. सुन्नत और अहादिस (हदीस Traditions ) –

प्रगतिशील होने के कारण मुस्लिम समाज के सामने ऐसी समस्याएं आती थीं जिनके बारे में कुरान खामोश था। अपने जीवन काल में पैगम्बर मोहम्मद अपने विनिश्चय देते थे, कुछ कार्य वे स्वयं करते थे और इस्लाम द्वारा अनुमत कुछ कामों को मौन स्वीकृति द्वारा होने देते थे। परिणामत: पैगम्बर मोहम्मद के द्वारा जो कुछ कहा गया या जो कुछ किया गया या जिसका मौन समर्थन किया गया वह समय और प्रामाणिकता की दृष्टि से करान के बाद मुस्लिम विधि का एक प्रधान स्रोत बन गया और ‘सुन्नत’ कहलाया। सुत्रत अथवा अहादिस से तात्पर्य पैगम्बर साहब की परम्परा से है। इस्लाम धर्म में यह विश्वास किया जाता है कि देवी आकाशवाणियों के दो प्रकार हैं- प्रत्यक्ष (जाहिर) और अप्रत्यक्ष (बातिन)। प्रत्यक्ष आकाशवाणी ख़ुदा के ही शब्दों में उतरी है और इन्हें खुदा ने देवदूत जिब्राइल के माध्यम से मोहम्मद साहब के पास भेजा। ऐसी आकाशवाणियाँ कुरान में निहित हैं। अप्रत्यक्ष (बातिन) आकाशवाणी ख़ुदा के शब्दों में नहीं है, बल्कि पैगम्बर साहब के शब्दों, कार्यों अथवा मौन स्वीकृति के रूप में है। परन्तु इन आकाशवाणियों को ईश्वर (खुदा) द्वारा ही प्रेरणा प्राप्त हुई। यही अप्रत्यक्ष आकाशवाणी ही सुन्नत या परम्परा है। इस प्रकार, कुरान ख़ुदा के ही शब्दों में है, जब कि परम्पराएं मोहम्मद साहब के वचनों, कार्यों या मौन स्वीकृति को कहा जाता है। परन्तु परम्पराएँ मोहम्मद साहब के जीवन काल में लेखबद्ध नहीं की गईं। वे प्राधिकृत लोगों की स्मृति में पुश्त-दर- पुश्त रक्षित चली आयीं। यही कारण है कि हदीस की स्वीकृति से पहले उनकी सूक्ष्म जाँच आवश्यक है। इस प्रकार हदीस को, जिसकी एक व्यक्ति के द्वारा पुष्टि की जाती है, खबर अलवाहिद कहते हैं, जो कि एक कमजोर हदीस है। जब हदीस बहुत सी घोषणाओं के द्वारा प्रमाणित होती है, तो वह मजबूत हदीस कहलाती है। पैगम्बर साहब की मृत्यु के समय कुरान और सुन्नत ही मिलकर मुस्लिम दीवानी, फौजदारी और धार्मिक विधि के आधार थे। कुरान में स्वयं हदीस के महत्व के बारे में बताया गया है।

:-कुरान कहता है— जो कुछ पैगम्बर मुहम्मद देते हैं उसे स्वीकार करो और जिसे यह मना करते हैं।उससे तुम दूर रहो।” (LIX 7)

एक जगह कुरान में कहा गया है- “यह अपनी स्वयं की इच्छा से कुछ नहीं बोलते हैं। यह वही कहते हैं जो इन पर अल्लाह द्वारा प्रकट (reveal) किया गया है।” (LIII 3-4)

दूसरी जगह कुरान कहता है, “तुम अल्लाह और उसके पैगम्बर की बात मानो।” (IV 59)

एक बार पैगम्बर साहब ने अपने अनुयायियों से कहा- “मैं तुम्हारे पास दो चीजें छोड़ रहा हूँ-अल्लाह की किताब और अपनी सुन्नत। जब तक तुम इन्हें पकड़े रहोगे, भूल से बचे रहोगे।

हदीस की किस्में (Kinds of Traditions ) — उद्भव की दृष्टि से हदीसों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है- –

( 1 ) सुन्नत-उल-फेल ( Sunnat ul feil) – ऐसी परम्पराओं में पैगम्बर साहब के आचरण सनिहित हैं। पैगम्बर साहब के द्वारा किये गये कृत्य ऐसी परम्पराओं की श्रेणी में आते हैं।

(2) सुव्रत-उल-कौल (Sunnat-ul-qual) अर्थात् पैगम्बर साहब द्वारा दी गयी व्यवस्था और उनके वचन। पैगम्बर साहब के द्वारा दिये गये उपदेश ऐसी सुन्नत के अन्तर्गत आते हैं।

(3) सुन्नत उल तकरीर (Sunnat-ul-tagrir) – अर्थात् जो कुछ उनकी उपस्थिति में बिना उनकी उपत्ति के किया गया। कभी-कभी पैगम्बर साहब तत्कालीन समस्याओं के निदान के लिये अपने समकालीन व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तर न देकर खामोश रह जाते थे। उनकी खामोशी उनकी मौन स्वीकृतिमान ली जाती थी।परम्पराओं का संकलन पैगम्बर साहब की मृत्यु के उपरान्त किया गया। ये परम्परायें राज्य के द्वारा संकलित नहीं की गयीं बल्कि कुछ व्यक्तियों के द्वारा संकलित की गयीं। इसलिये सभी परम्परायें प्रामाणिक नहीं मानी जाती हैं। परम्पराओं की प्रामाणिकता की कसौटी के लिये मुस्लिम विधिवेत्ता एक परीक्षण विधि निर्धारित करते हैं। उनके अनुसार, यदि किसी परम्परा का उल्लेख पैगम्बर साहब की मृत्यु के पश्चात् तीन पीढ़ी के अन्तर्गत हुआ है तो ऐसी परम्परा के प्रामाणिक होने की उपधारणा की जाती है, परन्तु यदि परम्परा का उल्लेख पैगम्बर साहब की मृत्यु के तीन पीढ़ी के भीतर नहीं हुआ है, तो परम्परा प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती।

ये पीढ़ियाँ इस प्रकार हैं-

(क) सहयोगियों की पीढ़ी:- ऐसे व्यक्ति, जिन्हें पैगम्बर साहब के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उन्हें पैगम्बर साहब का सहयोगी (companions) कहा जाता है।

(ख) उत्तराधिकारियों की पीढ़ी:- ऐसे व्यक्ति जिन्हें पैगम्बर साहब के साथ रहने का सौभाग्य तो नहीं प्राप्त हुआ था, परन्तु जिन्हें पैगम्बर साहब के सहयोगियों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उन्हें उत्तराधिकारी कहा जाता है।

(ग) उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी:-ऐसे व्यक्ति, जिन्हें न तो पैगम्बर साहब के साथ रहने का – सौभाग्य प्राप्त हुआ था, और न सहयोगियों के साथ रहने का अवसर मिला था, परन्तु जिन्हें उत्तराधिकारियों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उन्हें उत्तराधिकारियों का उत्तराधिकारी (Successors of the successors) कहा जाता है।

:-प्रामाणिकता के आधार पर परम्पराओं को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

(1) अहदीस-ए-मुतबातिर:-ऐसी परम्परायें, जिनका उल्लेख उपर्युक्त तीन पीढ़ी के असंख्य लोगों ने अनवरत रूप से किया है, इस कोटि में आती हैं। समस्त मुस्लिम समाज ऐसी परम्पराओं को प्रामाणिक मानता है। ऐसी परम्पराओं की संख्या केवल 5-6 तक ही सीमित है। ऐसी परम्परायें कुरान की आयतों की भांति प्रामाणिक मानी जाती हैं।

(2) अहदीश-ए-मशहूर :-ऐसी परम्परायें जिनका उल्लेख प्रथम पीढ़ी के कुछ सीमित लोगों ने कियाहो परन्तु बाद की दोनों पीढ़ियों के असंख्य लोगों ने जिनका उल्लेख किया हो, इस कोटि में आती हैं। अधिकांश मुसलमान ऐसी परम्पराओं को प्रामाणिक मानते हैं।

(3) अहदीस-ए-अहद:-ऐसी परम्परायें जिनका उल्लेख तीन पीढ़ियों तक लगातार न हुआ हो और जिनका उल्लेख कुछ सीमित व्यक्तियों ने किया हो, इस कोटि में आती है, अधिकांश मुसलमान ऐसी परम्पराओं को गैर प्रमाणिक मानते हैं।

:-मुस्लिम विधिवेत्ताओं ने परम्पराओं के उल्लेखकर्ता (Narrator) की अर्हताएं इस प्रकार विहित किया

(1) वह मुसलमान हो,

(2) वह स्वस्थचित्त और वयस्क हो,

(3) वह स्मरण रखने की शक्ति रखता हो, और

(4) वह सच्चरित्र व्यक्ति हो।

:-हदीसों का संकलन :-हदीसों के संकलन के सम्बन्ध में मुख्य रूप से दो भ्रान्तियाँ फैलाई गई हैं- पहली यह कि हदीसें मौखिक रूप से एक दूसरे से कही गई हैं। पैगम्बर मोहम्मद साहब के समय में इसे नहीं लिखा गया। दूसरे यह कि पैगम्बर साहब द्वारा कही बात को मौखिक बताने से इसका अर्थ (सार) बदल सकता है।

:-हज़रत मोहम्मद साहब के सहाबी उनकी सुन्नत का बहुत आदर करते तथा उनका अनुपालन करना अपना कर्तव्य समझते थे, इसलिये वे इन्हें कंठस्थ कर लिया करते थे ताकि इसे दूसरों तक पहुँचा सकें। अबू दाऊद और दारिमी फरमाते हैं कि “जो कुछ मैं पैगम्बर साहब से सुनता था उसे लिख लेता था तथा कंठस्थ कर लिया करता था। कुरैश के लोगों ने इस पर आपत्ति की और कहा कि पैगम्बर भी हम जैसे इंसान हैं, कभी वह गुस्से में बोलते हैं, कभी खुश होकर इस पर मैंने लिखना छोड़ दिया और पैगम्बर साहब को सारी बात बताई। पैगम्बर साहब ने मुझे आदेश दिया और अपने मुँह की तरफ इशारा करके कहा कि खुदा की कसम इस जुबान से सच के सिवा कुछ नहीं निकलता”।

:-सहाबा इकराम ने हदीसों को कई किताबों के रूप में संकलित किया था। उनमें से कुछ मुख्य नाम हैं- सहीफा सादिक, सहीफ़ा अली, सहीफ़ा अबूबकर, सहीफा जाबिर, सहीफ़ा सामूर इत्यादि। इन किताबों की हदीसों को प्रसिद्ध हदीसकार बुखारी, अबूदाऊद, हाकिम आदि ने भी अपने संकलन में लिखा है। शायद इतना इस भ्रान्ति को दूर करने के लिये पर्याप्त है कि हदीसों का संकलन हज़रत मोहम्मद (स०) की मृत्यु के सौ साल बाद शुरू हुआ।

:-अबू हरेरा जो कि हदीसों के एक बहुत बड़े ज्ञानी थे, ने कहा कि केवल अब्द अल्लाह बिन अम्र को छोड़कर कोई भी मुझसे अच्छा हदीसों को कहने वाला व साबित रखने वाला नहीं है क्योंकि अब्द अल्लाह जो भीपैगम्बर से सुनते वो उसे लिख लेते थे।

:-अनस बिन मलिक जो पैगम्बर साहब के बहुत चहेते नौकर थे (ये पैगम्बर साहब के साथ मदीना प्रवास मैं हमेशा साथ रहे) फरमाते हैं “मैं हमेशा रुचिकर मुद्दों पर पैगम्बर साहब के उपदेशों को लिख लेता था और जब उनके पास खाली समय होता उन उपदेशों को पैगम्बर साहब को सुनाता और फिर उनके सही करने के स्थानापन्न से लिपिबद्ध।

:-“यह भी कहना उचित नहीं है कि हदीसों को मौखिक रूप से कहा (transmit) गया है। अहमद विन अम्बल, अब्द अल्लाह बिन मुबारक के सम्बन्ध में कहते हैं कि वह हदीसों को हमेशा किताब से बताया करते थे कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो यह मानते हैं कि हदीसों का संकलन केवल बुखारी, मुस्लिम आदि ने किया है। यह मानना बिलकुल सही नहीं है।

:-हदीस बताने वाले की योग्यता-हदीस कहने वाला व्यक्ति एक योग्य व्यक्ति होना चाहिये। किसी अवयस्क एवं अस्वस्थचित्त व्यक्ति को कही गई हदीस को नहीं माना जा सकता है। इस व्यक्ति को उसका अर्थ समझने और याद करने की पूरी क्षमता होनी चाहिये। उसमें जैसा सुना है वही बताने की क्षमता हो। वह मुस्लिम हो, अच्छे चरित्र का हो।

3. इन्मा (विचारों का मतैक्य )

सर अब्दुर्रहीम ने ‘इज्मा’ की परिभाषा की है-“विधि के किसी प्रश्न पर विशेष काल में पैगम्बर मोहम्मद के अनुयायियों में से विधिवेत्ताओं का मतैक्य।’ (Agreement of the jurists among the followers of the Prophet Mohammad in a particular age on a particular question.”)

कानून जीवित और परिवर्तनशील है। सामाजिक परिस्थितियाँ क्रमशः परिवर्तनों के अधीन रहती हैं, और ये परिवर्तन कानून को प्रभावित करते हैं। हनफी विचारधारा के अनुसार समय के बदलने के साथ-साथ कानून में अवश्य ही परिवर्तन होना चाहिये। मलिकी विचारधारा के अनुसार, नये तथ्य नये निष्कर्षो को अपेक्षा करते हैं। कानून का उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं को पूरा करना है।

इज्मा का सिद्धान्त कुरान के निम्रांकित आदेशों पर आधारित है-

‘अल्लाह की आज्ञा मानो, उसके रसूल की आज्ञा मानो और तुममें से जो प्राधिकारी हों, उनको आज्ञाभानो। यदि तुम्हें ज्ञान न हो तो उनसे पूछो जिन्हें ज्ञान है।” (IV: 50)

इसके अतिरिक्त इज्मा का सिद्धान्त इस हदीस पर आधारित है कि “अल्लाह अपने बन्दों (लोगों) को गलती पर सहमत नहीं होने देगा।” समय और महत्व की दृष्टि में “इमा ” विधि का तीसरा स्रोत है।

:-इज्मा का महत्व – समय बीतने, सभ्यता का विकास होने और इस्लाम का प्रसार होने पर बहुत स ऐसी समस्याएं उठीं जिनका हल ‘कुरान’ और ‘अहादिस’ के निर्देश से नहीं किया जा सकता था। इसलिये विधिवेत्ताओं ने इज्मा का सिद्धान्त (अर्थात् किसी विशेष प्रश्न पर किसी विशेष काल के मुस्लिम विधिवेत्ताओं की सहमति) निकाला। प्रत्येक मुसलमान इज्मा के निर्माण में भाग लेने के योग्य नहीं माना जाता था। केवल मुजाहिद (विधिवेत्ता) हो इज्मा के निर्माण में भाग ले सकते थे। मुजाहिद होने के लिये आवश्यक योग्यता यह थी कि प्रथम, ऐसा व्यक्ति मुसलमान हो, द्वितीय, उसे विधि का पर्याप्त ज्ञान हो और तृतीय, वह स्वतन्त्र निर्णय देने की क्षमता रखता हो। विधिवेत्ताओं के मतैक्य से विधिनिर्माण की प्रक्रिया को इतिहाद कहा गया। परन्तु मुजाहिद (विधिवेत्तागण ) बिना किसी आधार के निर्णय नहीं दे सकते थे। उन्हें अपनी राय को कुरान अथवा परम्परा के आधार पर न्यायोचित सिद्ध करना आवश्यक रहता था।

:-इज्मा के प्रकार – इज्मा निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है-

(1) पैगम्बर के साथियों (companions) का इज्मा – अब्दुर्रहीम अपने विधिशास्त्र में कहते हैं-” पैगम्बर साहब के साथियों के इज्मा को बड़ा महत्व दिया जाता है, क्योंकि उनके साथी पैगम्बर के दृष्टिकोण से प्रेरित थे और पैगम्बर साहब के निकट रहने के कारण वे लगभग उन्हीं के समान तर्क – ऐति अपनाते थे। हनबली विचार पद्धति केवल ऐसे इज्मा को ही मान्यता प्रदान करती हैं। ऐसा इज्मा मुस्लिम दुनिया में सर्वत्र स्वीकार्य है और इसे पश्चात्वर्ती इज्मा से निरस्त नहीं किया जा सकता।”

(2) विधिवेत्ताओं का इज्मा:- इस सम्बन्ध में इन पदों पर मतभेद है- (क) इज्मा की विरचना को ठीक प्रक्रिया, जो कहीं लेखबद्ध नहीं की गई है. (ख) इज्मा को विरचना के लिये आवश्यक विधिवेत्ताओं की ठीक संख्या, (ग) क्या इज्मा मतैक्य से होता है या बहुमत के विनिश्चय से, (घ) क्या विधिवेत्ताओं के विनिश्चय के कारणों का भी उल्लेख करना चाहिये, और (ङ) क्या इज्मा होने के लिये सब विधिवेत्ताओं को एक साथ बैठना चाहिये? अब्दुर्रहीम का कहना है कि इज्मा के निर्माण के लिए ऐसी किसी औपचारिकता (Formality) की जरूरत नहीं है। परन्तु विधिवेत्ताओं के इज्मा का महत्व तभी हो सकता है जब वे इसके लिये पूरी तौर से अर्हतावान (Qualified) हों और जीवन में अपनी राय न बदलें।

(3 ) जनता का इज्मा – विधि की दृष्टि में विधिक प्रश्नों पर मुस्लिम जनता के इज्मा का कोई महत्व नहीं है, परन्तु धर्म (मजहब), नमाज और अन्य बातों में उसे बड़ा महत्व प्राप्त है।

‘इज्मा’ किसी विशेष काल या देश तक सीमित नहीं किया जा सकता। जब उचित विमर्श के बाद विधिवेत्ता किसी निष्कर्ष पर पहुँच जायें तो वह पूरा हो जाता है। कोई विधिवेत्ता उस पर आपत्ति नहीं कर सकता। एक विशेष काल का इज्मा उसी काल के या दूसरे काल के इज्मा के द्वारा रूप भेदित किया या पलटा जा सकता है। परन्तु व्यावहारिक तौर पर इज्मा के द्वारा विधि निर्माण की प्रक्रिया 10वीं शताब्दी के आस-पास बन्द कर दी गयी, क्योंकि यह माना गया कि कोई व्यक्ति मुजाहिद होने की योग्यता अब नहीं रखता है।

इज्मा के आवश्यक तत्व:-इज्मा की परिभाषा से उसके निम्नलिखित तत्व विदित होते हैं-

(1) आम सहमति – अधिकतर विधिवेत्ताओं का मानना है कि इस के लिये विधिवेत्ताओं का एकमत होना पहली शर्त है। यदि उनमें मतभिन्नता है यद्यपि कितनी हो अल्प क्यों न हो, तो विधिपूर्ण इज्या का निर्माण नहीं हो सकता। परन्तु कुछ विधिवेत्ताओं का मानना है, कि इज्या बहुसंख्यक राय द्वारा भी बनाया जा सकता है। यह आम सहमति तीन अवस्थाओं में गुजरती है, पहली, लोग अपनी राय अभिव्यक्त करते हैं, दूसरे, उस पर चर्चा होती है और तीसरे, भिन्नताओं को अलग करके सभी एक ही दृष्टिकोण पर सहमत होते हैं बहुसंख्य द्वारा बनाया गया इज्मा उसे कार्य के लिए तो बाध्य होता है लेकिन यह उस तरह पूर्ण इज्मा नहीं होता है जैसा कि आम सहमति द्वारा।

(2) विधिवेत्ता – ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में केवल दक्ष व्यक्तियों की राय मानी जाती है। विधि के क्षेत्र में चूंकि विधिवेत्ता हो दक्ष होते हैं इसलिये इनकी राय हो इज्म के लिये सुसंगत होती है। धार्मिक मामले दो प्रकार के होते हैं, पहले वह जिसमें विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती जैसे दिन में पाँच वक्त की नमा पढ़ना, रमजान के महीने में रोजे रखना इत्यादि। इन मामलों में एक साधारण व्यक्ति या विधिवेत्ता को भिन्न राय महत्वपूर्ण नहीं परन्तु कुछ मामले ऐसे हैं जो कि साधारण व्यक्ति की क्षमता से परे है जिसमें निपुणतम राज्य की आवश्यकता जैसे विवाह, तलाक के नियम, विक्रय के सिद्धान्त इत्यादि इन मामलों में विधिवेत्ताओं की राय ही मान्य होगी।

(3 ) विशिष्टकाल के विधिवेत्ता – पैगम्बर साहब के समय में इज्मा द्वारा कोई भी कानून नहीं बनाया जा सकता था। उनके बाद ही इज्मा का विकास हुआ। एक काल में बनाया गया इज्मा दूसरे काल में परिवर्तितकिया जा सकता है लेकिन सहाबियों द्वारा निर्मित इज्मा नहीं बदला जा सकता है।

(4) विधिवेत्ता मुस्लिम होना चाहिये-यदि कोई विधिवेत्ता मुस्लिम समुदाय का नहीं है तो उसकी राय इज्मा के लिये मान्य नहीं होगी।

4. कयास (सादृश्य निष्कर्ष) (Analogical deduction) कयास से तात्पर्य सादृश्य तर्क से है अर्थात् कुरान, हदीस और इज्मा के तत्समय नियम को आधार जानकर तदनुसार मौजूदा कानूनी प्रश्न पर नियमज्ञात करना। इस प्रकार तर्क के आधार पर कानून के नियम निकाले जाते हैं लेकिन यह नियम कुरान, हदीस और इज्मा के नियमों के विरुद्ध नहीं हो सकते हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि कुरान, हदीस और इज्मा तीनों ही किसी विशेष दृष्टान्त पर लागू नहीं होते। ऐसी अवस्था में यह किया जाता है कि उक्त स्रोतों के तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा नियमों के क्षेत्र और प्रयोगों को विस्तृत कर देते हैं। इसकी पुष्टि एक हदीस द्वारा हो जाती है जो इस प्रकार है- पैगम्बर साहब ने मुआज से पूछा कि “तुम अपने विनिश्चय किस पर आधारित करोगे?” मुआज ने जवाब दिया- “अल्लाह के ग्रन्थ पर।” तब पैगम्बर ने पुनः पूछा “यदि उससे सहायता न मिलो तो?” मुआज ने कहा- “पैगम्बर के सुन्नत पर” और पैगम्बर साहब ने फिर प्रश्न किया—“उससे भी काम नहीं चला तो?” मुआज ने उत्तर दिया–“अपनी ही बुद्धि से निर्णय करूंगा”। पैगम्बर साहब ने हाथ उठाकर कहा-“यह अल्लाह ही है जो पैगम्बर के दूतों को राह दिखाता है”। इस तरह कयास की परिभाषा अनुमान की एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में भी की जा सकती है जिसके द्वारा व्यवस्था की विधि ऐसे दृष्टान्तों पर लागू की जाती है जो यद्यपि उक्त स्रोतों (कुरान, अहादिस या इज्मा) की भाषा द्वारा आवृत नहीं होते, फिर भी उनकी भावना (spirit) के कारण शासित हो जाते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है। कि कयास किसी नयी विधि की रचना नहीं करता, बल्कि पुराने स्थापित सिद्धान्त को नयी परिस्थितियों पर लागू करता है।

:-कयास से विधि की उस अनन्य विचार पद्धति का भी उद्भव हुआ जिसका प्रतिनिधि “अजजहीर” को माना जाता है। विधि के विकास के लिये अधिकांश विद्वान इस बात पर सहमत थे कि ‘कुरान’, ‘सुन्ना’ और ‘इज्मा’ के अनुपूरण के लिये तर्क की सहायता आवश्यक है, फिर भी विधि और धर्म के प्रश्नों पर तर्क के प्रयोग का ठीक रूप और उसको सीमाएं निश्चित करने में उन्हें कठिनाई हुई।

:-यह स्रोत (कयास) हनबली स्कूल (Hanbali School) के अनुयायियों के लिये कोई महत्व नहीं रखता। शिया भी इस स्रोत को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनके अनुसार विधि की व्याख्या केवल इमाम द्वारा ही की जा सकती है। शाफी स्कूल के मानने वाले भी इस स्रोत को अधिक महत्व नहीं देते।

वे लोग जो कयास को अधिक महत्व नहीं देते वे कुरान की निम्नलिखित आयत का सन्दर्भ देते हैं।”

और हमने इस किताब को तुम पर प्रकट किया जिसमें प्रत्येक चीज का

“हमने इस किताब में कुछ भी अपेक्षित नहीं किया है।” (VI: 38)विवरण है।” (XVI: 89)

कयास का अनुसरण करने वाले लोग भी अपने समर्थन में कुरान और हदीस को सन्दर्भित करते हैं ” और इन सादृश्यों (Similitudes) को जिन्हें हमने लोगों के लिये प्रकाशित किया ज्ञानी लोगों को छोड़कर इनका अर्थ कोई नहीं समझ सकता।” (XXIX: 43)

“ऐ लोगों उनसे पाठ सीखो जिन्हें अद्भुत दृष्टि प्राप्त हुई है।” (CLIX: 2)

पैगम्बर साहब को यह कहते हुए सुना गया, “अपने फैसले और सुनत के प्रावधानों के अनुरूप कुरान दो यदि वह उपलब्ध है। यदि यह प्रावधान उपलब्ध नहीं है तब अपने निर्वाचन और राय (Opinion) का सहारा लो।”

:-विधि के स्रोत के रूप में कयास का महत्व:-

(1) पवित्र कुरान के प्रकाश में कयास:- कुरान कहता है कि “दान में वह वस्तु दो जो तुम्हें प्रिय लगती हो चूंकि जिस वस्तु को अप्रिय समझते हो, हो सकता है कि दूसरे भी उसे बुरा समझते हो।” (11:267)

कुरान में बहुत जगह यह कहा गया है कि “बुद्धिमान व्यक्ति हमेशा सीख लेते रहते हैं।

“क़ुरान के ये वाक्य क़यास की महत्ता और उसकी विधिकता को इंगित करने के लिये पर्याप्त हैं।

क़ुरान स्वयं में पूर्ण है और कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि उसे कुरान का पूर्ण ज्ञान है। कुरान के वाक्यों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-मोहकमात तथा मुताशाहित मोहकमात वह वाक्य होते हैं जिनका अर्थ साफ होता है, लेकिन मुताशाहित वह वाक्य होते हैं जिनके अनेक अर्थ होते हैं। ऐसी परिस्थिति में विधिवेत्ताओं का यह कर्तव्य होता है कि वह क़यास द्वारा इनका अर्थ सुनिश्चित करें।

:-हदीस के प्रकाश में कयास:– पैगम्बर साहब स्वयं भी विधिक समस्याओं को सुलझाने में कुरान और कयास का सहारा लेते थे। इस सम्बन्ध में हज़रत मौआज की हदीस को उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। यहाँ तक कि खलीफाओं के काल में भी क़यास की वैधता को चुनौती नहीं दी गई। चारों सुन्नी स्कूलकथास को इस्लामिक विधिशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत मानते हैं।

:-मेन के मतानुसार– ‘अधिकांश विधिशास्त्र की अविकसित अवस्था में ‘सादृश्य’ (Analogy) अत्यन्त उपयोगी उपकरण होते हुए भी बहुत खतरनाक है।”

🙁ख) गौण स्त्रोत (Secondary Sources)

5. उर्फ (रिवाज अथवा रूढ़ि ) – (Custom) रूढ़ि (रिवाज) को मुस्लिम विधि के स्त्रोत के रूप में कभी मान्यता नहीं दी गई, यद्यपि अनुपूरक (Supplementary) के रूप में उसका कभी-कभी उल्लेख पाया जाता है। अब्दुर्रहीम का कहना है कि “मुस्लिम विधिक पद्धति का मूल आधार किसी अन्य विधिक पद्धति के समान ही उन लोगों के रिवाजों और आचारों में पाया जाता है जिनमें उसका विकास हुआ।

“अरब निवासियों की वे रूढ़ियाँ और आचार, जो पैगम्बर साहब के जीवन काल में सुव्यक्त रूप से निरस्त नहीं किये गये थे, पैगम्बर साहब की खामोशी से बनी विधि के द्वारा अनुमोदित माने जाते हैं। यह आमतौर से कहा जाता है कि रूढ़ियों या उर्फ का विधि के स्रोत के रूप में वही स्थान है जो इज्मा का और उनकी मान्यता उन्हीं सूत्रों पर आधारित है जिन पर इज्मा की ‘हेदाया’ में यह लेखबद्ध है कि सुव्यक्त सूत्र के अभाव में रूढ़ि का स्थान ‘इज्मा’ के समान है।

:-विद्वानों द्वारा ‘इज्मा’ के समान रूढ़ि को प्रामाणिकता प्रदान नहीं की गई है। परन्तु रूढ़ि से अनुमोदित व्यवहार, सादृश्य (Qiyas) से व्युत्पन्न विधि के नियम के विरुद्ध होते हुए भी विधितया प्रवृत्त होता है, तथापि उसे कुरान के किसी स्पष्ट सूत्र या किसी परम्परा के प्रतिकूल नहीं होना चाहिये।

:-ऐसी रूढ़ि को, जिसे विधि के समान मान्यता प्राप्त हो, देश में सामान्यतया प्रवृत्त होना आवश्यक है।यह जरूरी नहीं है कि उसका उद्भव पैगम्बर के साथियों के वक्त में हुआ हो।

:-रूढ़ि का यह अनिवार्य गुण है कि वह क्षेत्रीय (Territorial) हो, अतएव एक देश की रूढ़ि दूसरे देशों की विधि पर प्रभाव नहीं डाल सकती। रूढ़ि की प्रामाणिकता तभी तक रह सकती है जब तक कि वह प्रवर्तन में रहे, जिसके कारण एक काल की रूढ़ि की दूसरे काल में मान्यता नहीं रह जाती।

:-भारत में, पंजाब और बम्बई के खोजा लोगों से हिन्दुओं से ग्रहण की गई रूढ़ियों और विधायिका तथा न्यायालयों के निर्णयों के द्वारा मुस्लिम-विधि कई पदों पर संशोधित हो गई है। परन्तु इनमें से कुछ रूढ़ियाँ जैसे वे जो उत्तराधिकार और दाय प्राप्ति (inheritance) से सम्बद्ध हैं, ग्रन्थ-विधि के विरुद्ध होने के कारण मुस्लिम विधिशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार अवैध होंगी। 1937 के मुस्लिम व्यक्तिगत विधि (शरिअत) प्रयोग अधिनियम [Muslim Personal Law (Shariat ) Application Act, 1937] की धारा 2 ने ऐसी रूढ़ियों और आचारों को, जिन्होंने मुस्लिम विधि के नियमों को विस्थापित (Displaced) कर दिया था, रद्द कर दिया है। इस अधिनियम के द्वारा मुस्लिम विधि की अधिकांश रूढ़ियाँ रद्द कर दी गयीं। इस अधिनियम की धारा 2 के अनुसार यदि पक्षकार मुस्लिम हैं तो उनके ऊपर मुस्लिम व्यक्तिगत विधि (शरिअंत) ही उत्तराधिकार, महिलाओं की विशिष्ट सम्पदा, विवाह, महर, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण, संरक्षकता, दान, वक्फ और न्यास के मामलों में लागू होंगी। इन दस मामलों में रूढ़ियाँ अब नहीं लागू हो सकती हैं।

मोहम्मद असलम खाँ बनाम खलीलुर्रहमान:-के बाद में यह धारित किया गया है कि सन् 1937 के शरिअत अधिनियम की धारा 2 का क्षेत्र और प्रयोजन रूढ़ियों और आचारों को, जहाँ तक उन्होंने मुस्लिम विधि के नियमों को विस्थापित कर दिया है. रद्द करना है। न्यायालयों के द्वारा मान्यता प्राप्त करने से रूढ़ियों की रक्षा नहीं हो सकती जब तक कि वह किसी अधिनियम में समाविष्ट न कर दिया गया हो।

16. न्यायिक विनिश्चय (Judicil Decisions )—इसमें प्रिवी काउन्सिल, उच्चतम न्यायालय और भारतके उच्च न्यायालयों के विनिश्चय आते हैं। वादों का विनिश्चय करने में न्यायमूर्ति विधि की घोषणा करतेहैं। ये विनिश्चय भविष्य के वादों के लिये दृष्टान्त समझे जाते हैं। दृष्टान्त केवल विधि के साक्ष्य ही नहीं,बल्कि उनके स्रोत भी होते हैं और विधि के न्यायालय दृष्टान्तों (precedents) का अनुसरण करने के लियेबाध्य होते हैं।

17. विधायन (Legislation) – भारतीय विधायिका के अधिनियमों ने, जैसे कौसीद (Usurious) ॠण अधिनियमः धार्मिक सहनशीलता अधिनियम, धर्म-स्वातन्त्र्य अधिनियम, 1850, संरक्षण और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 मुसलमान वक्फ मान्यता अधिनियम, 1913 मुसलमान वक्फ अधिनियम, 1930 वक्फ मान्यता (संशोधन) अधिनियम, 2013, बाल विवाह निग्रह अधिनियम, 1929, शरिअत अधिनियम, 1937 मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 भारतीय संविदा अधिनियम, 1872, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006, मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 और मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 ने मुस्लिम विधि को काफी सीमा तक प्रभावित, अनुपूरित और संशोधित किया है।

18. न्याय, साम्या और सद्विवेक (Justice, Equity and Good Conscience ) — न्याय, साम्या और सद्विवेक को भी मुस्लिम विधि का एक स्त्रोत समझा जा सकता है। सुन्नियों के हनफी शाखा के संस्थापक अबू हनीफा ने यह सिद्धान्त स्पष्ट किया कि किसी विशेष बाद की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिये उदार अर्थान्वयन (Constrution) या विधिशास्त्रीय अधिमान (Preference) के द्वारा न्यायाधीश सादृश्यता (Analogy) पर आधारित विधि के नियम को अपास्त कर सकता है। मुस्लिम विधि के इन सिद्धान्तों को ‘इस्तिहसन’ या ‘विधिशास्त्रीय साम्य’ कहते हैं। हमीरा बीबी बनाम जुबैदा बीबी के वाद में प्रिवी काउन्सिल के विद्वान न्यायाधीशों ने निम्नलिखित अवलोकन किया-“मुस्लिम विधि के ग्रन्थों में काज़ी के कर्तव्यों (अदब) के अध्याय से यह सुस्पष्ट है कि मुस्लिम पद्धति इंगलैण्ड के चान्सरी न्यायालयों (Chancery Courts) द्वारा सामान्यतः मान्यताप्राप्त साम्य और साम्यपूर्ण निरूपण के नियमों से परिचित है और तथ्यतः वादों के न्यायनिर्णयन में उनका निर्देश और आह्वान (Invoked) किया जाता है।

:-इस्तिहसन (Istehsan) अर्थ ‘इस्तिहसन’ का शाब्दिक अर्थ है-‘समर्थन’। उसका अनुवाद ‘उदार अन्वयन’ या ‘विधिशास्त्रीय अधिमान’ (Judicial preference न्यायिक वरीयता) के रूप में भी किया जा सकता है। यह शब्द महान विधिवेत्ता अबू हनीफा के द्वारा उस स्वातन्त्र्य को व्यक्त करने के लिये, जो अपने विवेकानुसार सादृश्य निष्कर्ष द्वारा निर्देशित विधि नहीं, बल्कि विशेष परिस्थितियों द्वारा अपेक्षित विधि लेखबद्ध करने में प्रयोग किया गया। इस पर केवल इस आधार पर नहीं कि ऐसा करने में विधि की व्याख्या में बहुत कुछ विवेक पर निर्भर रहता है, बल्कि इस आधार पर भी, जो मुसलमानों की दृष्टि में अधिक महत्वपूर्ण था, आपत्ति की गई कि वह विधि पर ऐसी कसौटी (Test) का प्रयोग करता है जो ‘कुरान’ और धर्म की ओर नहीं बल्कि इस्लाम से स्वतन्त्र बाहरी परिस्थितियों की ओर निर्देश्य है। अबू हनीफा के साथियों ने ‘इस्तिहसन’ के प्रयोग को स्वीकार नहीं किया। इमाम मलिक इब्न अनास ने यह सुझाव दिया कि जहाँ सादृश्य द्वारा निर्देशित नियम ठीक न जान पड़े, वहाँ ‘इस्तिस्लाह’ अर्थात् ‘संशोधन’ को काम में लाया जाय।इसी तरह इमाम मलिक ने ‘इस्तिहसन’ (विधिशास्त्रीय साम्य) की प्रक्रिया के समान ही ‘इस्तिस्लाह’ (लोकहित के सिद्धान्त का आविष्कार किया और उसके बाद विधिशास्त्रीय तर्क (ratiocination) की एक विशेष रीति ‘इस्तिदलाल’ का प्रवर्तन किया। ‘इस्तिहसन’, ‘इस्तिस्लाह’ और ‘इस्तिदलाल’ द्वारा विधि का विकास मुस्लिम विधि में विधिशास्त्रीय साम्य का काल माना जाता है। अमीर अली का कथन है कि जहाँ मुस्लिम विधि के व्याख्याकारों ने भिन्न सिद्धान्त या मतभेद प्रकट किया हो, वहाँ न्यायाधीश साम्य के अनुकूल सिद्धान्त को ग्रहण कर सकता है।

(ग) शिया शाखा के अनुसार विधि के स्रोत:-

शिखा शाखा के अनुसार विधि के निम्नलिखित स्रोत हैं-(1) कुरान, (2) अहादिस (3) इजमा

सुनियों के समान ही शिया लोग भी ‘कुरान’ को मुस्लिम विधि का प्रथम स्रोत मानते हैं। परन्तु दोनों में भेद उसके निर्वाचन पर है। शिया लोग उसी अहादिस को प्रामाणिक समझते हैं जो पैगम्बर या उनके वंशजों से आयी है और इस सम्बन्ध में वे लोग बहुत कट्टर हैं। इसी कारण शिया सम्प्रदाय की अहादिस की संख्या बहुत कम है। जब ‘कुरान’ और अहादिस से सहायता नहीं मिलती तो शिया लोग तर्क का सहारा लेते हैं और विशेष तौर पर जबकि इमाम से परामर्श नहीं हो सकता था। शिया लोग क्रयास को मान्य स्रोत की तरह स्वीकार नहीं करते और इमाम की उपस्थिति में साम्य, लोक नीति या तर्क को कोई स्थान नहीं देते हैं।

:-(घ) मुस्लिम-विधि और मूल हिन्दू-विधि के स्रोतों की तुलना:-

(1) यह ध्यान देने योग्य है कि मूल हिन्दू विधि भी विधि के चार स्रोतों को मान्यता देती थी- (1)श्रुति, (2) स्मृतियाँ, (3) सदाचार (धर्मात्माओं का आचरण) और (4) अपना अन्त:करण (मनु०2, 12) 1 (2) हिन्दू और मुस्लिम विधियाँ दोनों ही देवी उद्गम का दावा करती हैं और शासक को विधि के अधीन मानती हैं, विधि के ऊपर नहीं। दोनों ही विधि व्यवस्थाओं के अन्तर्गत शासक का कार्य विधि का निर्माण करना नहीं, बल्कि विधि के अनुसार शासन संचालित करना मात्र है।(3) दोनों विधि ही पद्धतियों में प्रथम स्रोत हिंदू में श्रुति (वेद) और पद्धति के संप्रदाय कुरान को ईश्वरी वाणी माना जाता है।(4) दोनों में प्रमुख भेद यह है कि मुस्लिम विधि एक ऐतिहासिक विशिष्ट पुरुष, अर्थात् पैगम्बर मोहम्मद की अपना व्यवस्थापक मानती है, पर हिन्दू विधि ऐसा कोई दावा नहीं करती।

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