विधि के अन्तर्गत व्यक्ति को कई विधिक अधिकार प्रदान किये गये है। साथ ही इन अधिकारों के संरक्षण के लिए उपचार भी उपलब्ध कराये गये है। उपचार विहीन अधिकार अर्थहीन होते है। इसीलिये कहा जाता है कि “जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है” (Ubi jus ibi remedium) । जब किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है तब उपचार के रूप में या तो सक्षम सिविल न्यायालय में बाद लाया जाता है या फिर दाण्डिक कार्यवाही की जाती है। इसी श्रृंखला में एक और अनुतोष है अपकृत्य विधि के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति का ऐसे मामलों में व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन अथवा अतिलंघन होता है यही अपकृत्य विधि की विषय वस्तु है।

‘अपकृत्य’ शब्द का उद्भव — अपकृत्य को दुष्कृति भी कहा जाता है। यह अंग्रेजी के शब्द ‘Tort’ का हिन्दी रूपान्तरण है। वस्तुतः यह शब्द फ्रेंच भाषा का है। आंग्ल भाषा में इसे ‘Wrong’ तथा रोमन में ‘Delict’ कहा जाता है। शब्द ‘Tort’ लेटिन शब्द ‘Torts’ से बना है जिसका अर्थ है- अपराधमूलक आचरण।

:-परिभाषा – अपकृत्य की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी गई है। विनफील्ड का कहना है कि अपकृत्य की कोई सारवान, सार्वभौम अथवा संतोषप्रद परिभाषा दिया जाना कठिन है। रतनालाल धीरजलाल का भी यही मत है कि अपकृत्य की परिभाषा देने के अनेक प्रयास किये गये है लेकिन आज तक कोई सार्वभौम परिभाषा नहीं दी जा सकी है।

:-विनफील्ड के अनुसार- “अपकृत्य का दायित्व एक ऐसे कर्तव्य के उल्लंघन से उद्भूत । होता है जिसे प्राथमिक रूप से विधि द्वारा सुनिश्चत किया जाता है और जो जनसाधारण के प्रति होता है तथा इस उल्लंघन का निवारण अधिनिर्धारित नुकसानी के लिए कार्यवाही द्वारा किया जाता है।”

Tortious liability arises from the breach of a duty primarily fixed by law; This duty is towards persons generally and its breach is redressable by an action for unliquidated damages,

:-सॉमण्ड के अनुसार “अपकृत्य एक सिविल दोष है जिसके लिए उपचार – अनिर्धारित नुकसानी के लिए कॉमन विधि के अन्तर्गत कार्यवाही है जो अबाध रूप से न तो संविदा भंग है; न न्यास भंग है और न किसी अन्य साम्यिक दायित्व का उल्लंघन है।”

[“A tort is a civil wrong for which the remedy is a common law action for unliquidated damages and which is not exclusively the breach of a contract or breach of trust or other merely equitable obligation.” Salmond: Law on Trots]

:-परिसीमा अधिनियम की परिभाषा के अनुसार-

(क) अपकृत्य एक सिविल अपकार है, न कि आपराधिक अपकार।

(ख) यह केवल संविदा भंग अथवा न्यास भंग से भिन्न अपकार है।

(i) अपकृत्य एक सिविल दोष (civil wrong) है;

(ii) यह संविदा-भंग, न्यास-भंग एवं साम्यिक दायित्वों से भिन्न है;

(iii) अपकृत्यजनक दायित्व का उद्भव विधि द्वारा पूर्व-निश्चित कर्तव्य भंग से होता

(iv) विधिक कर्तव्य एवं दायित्व सभी व्यक्तियों के प्रति होते है;

(v) इसका उपचार अभिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (Unliquidated damages) के लिए लाना होता है; (vi) ऐसे विधिक कर्तव्यों एवं दायित्वों के उल्लंघन से नुकसानी अर्थात् क्षतिपूर्ति का वाद सस्थित करने का अधिकार मिल जाता है।

(1) दोषपूर्ण कार्य किया जाना – अपकृत्य का पहला अनिवार्य तत्व है- कोई दोषपूर्ण कार्य किया जाना अर्थात् किसी व्यक्ति द्वारा अपने पूर्व-निर्धारित कर्तव्यों का भंग किया जाना। जब कोई व्यक्ति अपने पूर्व-निर्धारित कर्त्तव्यों को भंग करता है तो उससे किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिलंघन अथवा अतिक्रमण होता है। अधिकारों का अतिक्रमण ही दोषपूर्ण कार्य है और यही “अपकृत्य है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऐसे अधिकारों का ‘विधिक अधिकार’ होना आवश्यक है। विधिक अधिकारों का उल्लंघन ही अपकृत्य के संदर्भ में दोषपूर्ण कार्य माना जाता है। ऑस्टिन के अनुसार – विधिक अधिकार से अभिप्राय ऐसे अधिकारों से है जो किसी व्यक्ति को विधि द्वारा प्रदत्त होते है और ऐसे अधिकार सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध उपलब्ध रहते है।

(2) विधिक क्षति – अपकृत्य का दूसरा आवश्यक तत्व “विधिक क्षति” है। किसी व्यक्ति का कोई कार्य तभी अपकृत्य माना जाता है जब ऐसे कार्य से किसी अन्य व्यक्ति को कोई विधिक क्षति कारित हुई हो। यह न तो आर्थिक क्षति होती है और न ही वास्तविक क्षति ।

विधिक क्षति से अभिप्राय है किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन अथवा अतिक्रमण । यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे व्यक्ति को कोई आर्थिक या वास्तविक क्षति कारित हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन होना ही विधिक क्षति है। यह “बिना हानि के शति” (injuria sine damnun) के सूत्र पर आधारित है।

इस सम्बन्ध में ‘एशबी बनाम व्हाइट’ [(1703) 2 एल. आर. 938] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें वादी को मत देने का अधिकार था लेकिन उसे इस अधिकार से वंचित कर दिया गया था निर्वाचन में यधपि वादी का प्रत्याशी विजयी रहा था फिर भी इस वादी के अधिकारों का अतिलंघन मानते हुए विधिक क्षति घोषित किया गया।

(3) नुकसानी का वाद लाने का अधिकार- अपकृत्य का तीसरा आवश्यक तत्व है- नुकसानी का वाद लाने का अधिकार। यह तत्व ‘जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है’ (Ubi jus ibi remedium) के सूत्र पर आधारित है। ‘एशबी बनाम व्हाइट’ [(1703)2 एल.आर.938] के मामले में मुख्य न्यायाधीश हाल्ट द्वारा इस तत्व की पुष्टि करते हुए यह कहा गया है कि- “यदि किसी व्यक्ति को अधिकार दिये गये है तो ऐसे अधिकारों के सरक्षण के लिए उसे उपचार भी उपलब्ध होने चाहिये। अधिकार एवं उपचार दोनों एक-दूसरे के पर्याय है। उपचारों के अभाव में अधिकार अर्थहीन है।’

इस सम्बन्ध में ‘नूर मोहम्मद बनाम जियाउद्दीन‘ (ए.आई. आर. 1992 मध्यप्रदेश244) का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें लड़के की बारात में लड़के के पिता एक नर्तकी को साथ ले गया था। लड़के के पिता ने लड़की के पिता से नर्तकी के खर्चे की मांग की और यह धमकी दी कि यदि खर्चा नहीं दिया गया तो बारात लड़की (दुल्हन) को छोड़ कर लौट जायेगी। ऐसा ही हुआ। बारात दुल्हन को वहीं छोड़कर चली गई। लड़की के पिता ने लड़के के पिता के विरुद्ध विवाह के खर्चों, प्रतिष्ठा की हानि आदि के लिए नुकसानी का वाद दायर किया। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने वादी के वाद की पुष्टि करते हुए कहा कि नर्तकी के खर्चे की मांग करना; धमकी देना; खर्चा नहीं मिलने पर दुल्हन को छोड़कर चले जाना आदि अपकृत्यपूर्ण कार्य है।

सूबा सिंह बनाम दविन्दर कौर (ए.आई. आर. 2011 एस.सी. 3163) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उपेक्षा एवं लापरवाही के मामलों में मृत्यु हो जाने पर आपराधिक कार्यवाही के साथ-साथ नुकसानी का सिविल वाद लाया जा सकता है। अपकृत्य विधि में अपकृत्य को सिविल दोष माना गया है। इसमें आपराधिक कार्यवाही के चलते नुकसानी का वाद लाने पर कोई रोक नहीं है।न्यायालय ने यह भी कहा कि अपकृत्य के मामलों में नुकसानी की कार्यवाही किये जाने की परम्परा लगभग 150 वर्ष पुरानी है।

:-अपकृत्य एवं संविदा-भंग में अन्तर — अपकृत्य संविदा-भंग से भिन्न है। इन दोनों में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है-

(1) अपकृत्य में किसी व्यक्ति द्वारा उन कर्तव्यों का उल्लंघन किया जाता है जो विधि द्वारा पूर्व निर्धारित होते है; जबकि संविदा-भंग में किसी पक्ष द्वारा उन शर्तों का उल्लंघन किया जाता है जो दोनों पक्षकारों में करार द्वारा तय की जाती है।

(2) अपकृत्य में किसी व्यक्ति के ‘लोक लक्षी अधिकारों’ (right in rem) का अतिक्रमण होता है जबकि संविदा-भंग में ‘व्यक्तिलक्षी अधिकारों (right in personam) का अतिक्रमण किया जाता है।

(3) अपकृत्य में अभिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (liquidated damages) के लिए बाद लाया जाता है जबकि संविदा भंग में निर्धारित नुकसानी के लिए।

(4) अपकृत्य में ‘आशय’ अथवा ‘हेतुक’ (intention or motive) का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यदि कोई कार्य दुराशय से नहीं किया जाकर सद्भावनापूर्वक किया जाता है तो वह अपकृत्य की कोटि में नहीं आता जबकि संविदा-भंग में आशय अथवा हेतुक अर्थहीन होता है।

(5) अपकृत्य में नुकसानी का उद्देश्य ‘दण्डात्मक’ होता है जबकि संविदा-भंग में ‘प्रतिकारात्मक’ ।

इस विषय पर ‘जारविस बनाम डेविस स्मिथ वान्डर वेली एण्ड कं. [(1936)1के.बी. 399] का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है। इसमें अपकृत्य एवं संविदा-भंग के बीच अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि- “जहाँ कर्त्तव्य का उल्लंघन संविदा के अन्तर्गत लिये गये वैयक्तिक दायित्व से स्वतंत्र होता है वहाँ वह अपकृत्य होता है, जबकि संविदा का उल्लंघन तब होता है जब वह दायित्व किसी संविदा के अन्तर्गत लिया गया हो।”

:-अपकृत्य एवं अपराध में अन्तर- अपकृत्य एवं अपराध यद्यपि एक जैसे लगते है लेकिन इन दोनों में भी अन्तर है। यह अन्तर निम्नांकित है-

(1) अपकृत्य एक “वैयक्तिक दोष” होता है। इसमें किसी व्यक्ति को हानि अथवा क्षति होती है और वह ऐसी क्षति की पूर्ति के लिए बाद ला सकता है। जबकि अपराध सम्पूर्ण समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है और इसमें कार्यवाही राज्य द्वारा की जाती है।

(2) अपकृत्य एक “सिविल दोष’ (civil wrong) होता है। इसके लिए सिविल न्यायालय में नुकसानी का वाद लाया जाता है जबकि अपराध एक दण्डनीय कृत्य होता है। इसमें अभियुक्त को कारावास के दण्ड से दण्डित किया जाता है।

(3) अपकृत्य के लिए कार्यवाही सिविल न्यायालय में की जाती है जबकि अपराध के लिए दाण्डिक न्यायालय में अभियोजन चलाया जाता है।

(4) अपकृत्य का मुख्य उद्देश्य पीड़ित पक्षकार को दोषी पक्षकार से क्षतिपूर्ति दिलाना है जबकि अपराध विषयक मामलों में मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को दंडित कर समाज में अपराधों की रोकथाम के लिए भय व्याप्त करना है।

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