प्रारंभ में हिंदू विधिशास्त्र की कोई शाखा नहीं थी। हिंदू विधिशास्त्र समस्त क्षेत्रो पर लागू था लेकिन कुछ समय बाद स्मृतियों की व्याख्या के लिये अनेक टीकाएं विभिन्न विद्वानों द्वारा रची गई। इन विद्वानों ने अपनी टीकाओं में अपने-अपने देश में विभिन्न प्रथाओं को भी स्थान दिया और इस तरह हिंदू विधि की शाखाओं का जन्म हुआ।

हिन्दू विधि की दो शाखाएं है

1)मिताक्षरा शाखा

2) दायभाग शाखा

मिताक्षरा शाखा की ये चार उपशाखाये है-

i) वाराणसी उपशाखा

ii) मिथिला शाखा

iii) महाराष्ट्र या बम्बई उपशाखा

iv) द्रविड़ या मद्रास उपशाखा

मिताक्षरा और दायभाग शाखा– हिंदू विधि की मिताक्षरा और दायभाग नामक दोनों विचारधाराओं में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है कुछ लोग मिताक्षरा का पालन करते हैं तो कुछ दायभाग का। विज्ञानेश्वर के द्वारा रचित टीका मिताक्षरा के नाम पर ही मिताक्षरा शाखा का नाम पड़ा है और जीमूतवाहन के निबन्ध दायभाग पर ही दायभाग शाखा का नामकरण हुआ है। मिताक्षरा का प्राधिकार क्षेत्र असम को छोड़कर पूरे भारत पर है जबकि दायभाग का प्रभाव बंगाल और असम क्षेत्र में है। मिताक्षरा का इतना अधिक प्रभाव है कि बंगाल और असम में भी जिन मामलों में दायभाग मौन है वहां मिताक्षरा शाखा ही मान्य है।

मिताक्षरा और दायभाग शाखाओ में कुछ विषय पर मतभेद है। जैसे- उत्तराधिकार, संयुक्त कुटुंब और सहदायिकी

मिताक्षरा शाखा में रक्त नातेदार उत्तराधिकार में संपत्ति लेता है यह एक लौकिक सिद्धांत है वर्तमान हिंदू उत्तराधिकार विधि का यही सिद्धांत है। अगर इस सिद्धांत को लागू किया जाए तो इसका मतलब होगा कि पुत्र और पुत्री, भाई और बहन, माता और पिता या पोता और दौहित्र एक साथ और बराबर हिस्सा लेंगे क्योंकि यह बराबर निकटता के नातेदार हैं। जबकि दायभाग शाखा में उत्तराधिकार का सिद्धांत आध्यात्मिक और धार्मिक लाभ है। आध्यात्मिक या धार्मिक लाभ के सिद्धांत में वह नातेदार जो पिंडदान के द्वारा मृतक की आत्मा को सबसे ज्यादा शांति दे सकता है, वही संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा।

वर्तमान हिंदू विधि में जहां तक उत्तराधिकार का प्रश्न है हिंदू विधि की शाखाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में सब हिंदुओं पर एक ही उत्तराधिकार विधि लागू होती है।

i) वाराणसी उपशाखा– यह उपशाखा मिथिला और पंजाब को छोड़कर पूरे उत्तर भारत में मानी जाती है इस शाखा को मिताक्षरा शाखा भी कहते हैं। इसका मुख्य ग्रंथ है- – वीरमित्रोंदय और निर्णयसिंधु

ii) मिथिला उपशाखा – इसका क्षेत्र तिरहुत और उत्तरी बिहार के कुछ जिलों में। इसके मुख्य ग्रंथ है विवाद चिंतामणि और विवाद रत्नाकर।

iii) बम्बई उपशाखा– पश्चिम भारत इस उपशाखा का हैं। बंटवारे से पहले का समस्त बम्बई प्रांत इसके क्षेत्र में आते हैं

iv) द्रविड़ उपशाखा– दक्षिण भारत में इस उपशाखा का क्षेत्र है। स्मृति चंद्रिका, पाराशर माधवीय, सरस्वती विलास और व्यवहार निर्णय इसके मुख्य ग्रंथ हैं।

वर्तमान हिंदू विधि में इन उपशाखों का कोई महत्व नहीं रह गया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कुछ प्रांतों में किसी एक शाखा को अपनाया तो दूसरी को अस्वीकार कर दिया और किसी प्रांत ने दूसरी शाखा को अपनाया तो अन्य को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार हिंदू विधि की विभिन्न शाखों का जन्म हुआ।

मिताक्षरा और दायभाग पद्धति में अंतर-

1) मिताक्षरा एक परंपरागत पद्धति है जबकि दायभाग एक संशोधित पद्धति है।

2) मिताक्षरा शाखा बंगाल को छोड़कर पूरे भारत में प्रचलित है जबकि दायभाग केवल बंगाल में ही प्रचलित है।

3) मिताक्षरा एक टीका है जबकि दायभाग समस्त संहिताओं का एक संग्रह है।

4) मिताक्षरा एक कट्टरपंथी शाखा है जबकि दायभाग संशोधित शाखा है।

5) मिताक्षरा में जन्म से ही संपत्ति पर अधिकार होता है इसीलिए पैतृक संपत्ति में पुत्र पिता के साथ ही सह- स्वामी होता है जबकि दायभाग में संपत्ति का अधिकार मृत्यु के बाद उत्पन्न होता है पुत्र पिता के जीवन में पैतृक संपत्ति में कोई अधिकार नहीं रखता।

6) मिताक्षरा में पिता का संपत्ति को अंतरित करने का अधिकार बहुत ही सीमित होता है और पुत्र पिता के विरुद्ध भी बंटवारे का दावा कर सकता है जबकि दायभाग में पिता को संपत्ति के अंतरण करने का पूरा अधिकार होता है और पुत्र पिता के जीवन में बंटवारे आदि का यहां तक की भरणपोषण का भी दावा नहीं कर सकता।

7) मिताक्षरा में संयुक्त परिवार के सदस्य का संपत्ति में हिस्सा उसकी मृत्यु पर परिवार के अन्य सदस्यों को चला जाता है जबकि दायभाग में संयुक्त परिवार के सदस्य की मृत्यु पर उसकी संपत्ति में हिस्सा उसके वारिसो को मिलता है। जैसे- विधवा या पुत्री आदि को।

8) मिताक्षरा में संयुक्त परिवार के सदस्य अविभाजित संपत्ति में अपने हिस्से का निपटारा नहीं कर सकते जबकि दायभाग में संयुक्त परिवार के सदस्य अविभाजित संपत्ति में अपने हिस्से को बेच सकते हैं या उसका अन्य तरीके से निपटारा कर सकते हैं।

9) मिताक्षरा में उत्तराधिकार का सिद्धांत संबंध पर र आधारित होता है जबकि दायभाग में उत्तराधिकार का सिद्धांत आध्यात्मिक आधार होता है जो व्यक्ति पिंडदान कर सकते हैं वही दायभाग प्राप्त कर सकते हैं।

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