हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 में जो शर्ते दी गई है उन शर्तों का उल्लंघन होने पर किसी विवाह को शून्य और शून्यकरणीय घोषित किया जाता है।

एक वैध हिंदू विवाह के लिए इन शर्तों का होना आवश्यक है-

1) एक समय में एक ही विवाह (द्विविवाह)- हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (i) के अनुसार विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से किसी का भी पति या पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए। इस प्रकार यह शर्त बहुपति और बहुपत्नी प्रथा को समाप्त करती है। इस अधिनियम में एक समय में एक ही विवाह को मान्य किया गया है। यदि विवाह के समय किसी पक्षकार का कोई पति या पत्नी जीवित हो तो ऐसी दशा में किया गया विवाह धारा 17 में शून्य होगा और भारतीय दंड संहिता की धारा 494 और 495 के अंतर्गत दंडनीय होगा।

केस- कंवलराम बनाम हिमाचल प्रदेश (1966)-द्विविवाह अपराध तभी बनेगा जबकि दूसरे विवाह के सारे मान्य अनुष्ठान पूरी तरह से संपत्र हुए हो।

केस– प्रिया बनाम सुरेश (1971)– द्विविवाह तभी बनेगा जबकि दूसरे विवाह का अपराध बनता है। प्रमाण के बिना दूसरा विवाह नहीं माना जाता।

2) मानसिक असमर्थता– हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (ii) के अनुसार विवाह के समय दोनों पक्षकारो में से कोई भी पक्षकार

1) मस्तिष्क कमजोरी के कारण वैध सहमति देने में असमर्थ ना हो।

ii) मानसिक रूप से पीड़ित ना हो कि वह विवाह और संतान पैदा करने के लिए अयोग्य हो।

iii) पागलपन या मिर्गी के दौरे से बार बार पीड़ित ना रहता हो।

इस प्रकार विवाह के किसी भी पक्षकार का विवाह के समय पागल होना विवाह की एक अयोग्यता है। विवाह के बाद पागल होने पर यह न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद का आधार होता है ना कि शून्यकरणीय का। इस शर्त का उल्लंघन होने पर धारा 12 के अनुसार विवाह शून्यकरणीय हो जाता और न्यायालय की डिक्री द्वारा अकृत किया जा सकता है।

केस- अलका शर्मा बनाम अविनाश चंद्र (1991) न्यायाधीश ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति विवाह क्या है, यह समझने में असमर्थ है या संतानोत्पत्ति के अयोग्य है तो उसे विकृतचित्त माना जाएगा। ऐसा विवाह धारा 12 में शून्यकरणीय है।

3) विवाह की आयु– हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (ii) के अनुसार विवाह के समय तड़के की आयु 21 वर्ष और लड़की की आयु 18 वर्ष होनी आवश्यक है। प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जो इसका शर्त का उल्लंघन करके विवाह करता है तो वह धारा 18 (क) के अनुसार दो वर्ष के कठोर कारावास से या एक लाख रुपये के जुमनि से या दोनों सेदंडित किया जाएगा।

केस- मनिंदर बनाम मेजर सिंह (1972)- विवाह वैध है लेकिन 18 (क) में दो वर्ष कारावास या एक लाख जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।

केस- मुंशी प्रेमी बनाम दयाराम (1965)– इस उपबंध द्वारा बाल विवाह को रोका जा सकता है यदि कोई बाल विवाहम होने जा रहा है तो न्यायालय से व्यादेश लेकर उस विवाह को रोका जा सकता है।

4) प्रतिषिद्ध नातेदारी– हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iv) के अनुसार पक्षकार के संबंध निषेधात्मक संबंधों में नहीं होने चाहिए। जबतक कि उनको शासित करने वाली रूढ़ि ऐसा करने की अनुमति ना देती हो। इस शर्त का उल्लंघन होने पर धारा 11 के अनुसार विवाह अकृत और शून्य होता है और धारा 18 (क) के अनुसार ऐसे व्यक्ति को एक माह का कारावास या एक हज़ार रुपये के जुमनि या दोनों से दंडित किया जाएगा।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3 (छ) प्रतिषिद्ध नातेदारी की परिभाषा देती है जिसके अनुसार दो व्यक्ति जो :-

1) एक दूसरे के परंपरागत अग्र-पुरुष है।

2) वंशज की पत्नी या पति है।

3) एक दूसरे के भाई की, पिता या माता के भाई की. या पितामाह या मातामाह या पितामही या मातामाही के भाई की पन्नी है।

4) भाई और बहन चाचा और भतीजी चाची और भतीजा या भाई और बहन की या दो भाइयों या दो बहनों की संतान है तो वे प्रतिषिद्ध नातेदारी में आते हैं।

केस- सुब्बाराव बनाम सीतारमन (1982)– इस मामले में कहा गया कि जहां दो प्रतिषिद्ध संबंधियों में विवाह को उस जाति में प्रचलित प्रथा द्वारा मान्यता दी गई है वहां विवाह विधिमान्य समझा जाएगा।

केस- कामाक्षी बनाम मणि (1970)- यदि रूढ़ि किसी प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी में विवाह मान्य ठहराती है तो विवाह मान्य होगा। ऐसा विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के पारित होने के बाद भी मान्य होगा।

5) सपिण्ड नातेद्वारी– हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (v) के अनुसार पक्षकार एक दूसरे के सपिण्ड न हो जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि उनके बीच विवाह की अनुमति ना देती हो। इस शर्त का उल्लंघन करने वाले विवाह के पक्षकार को अधिनियम की धारा 18 (ख) में एक माह का कारावास या एक हजार रुपये के जुर्माने या दोनों से दंडित किया जा सकता है। ऐसा विवाह शून्य होगा। सपिंड नातेदारी में किया जाने वाला विवाह उन दो लोगों के बीच मना किया गया है जो आपस में बहुत ही करीबी रक्त संबंधी होते है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 3 (च) के अनुसार सपिंड नातेदारी में पिता के ऊपर की पांच पीढ़ी और माता से ऊपर की तीन पीढ़ी तक के सम्बन्धों में किया जाने वाला विवाह सपिंड संबंधों के भीतर आएगा।

उदाहरण– कोई भी व्यक्ति अपने मातृ पक्ष की ओर से अपने भाई बहन (पहली पीढ़ी) अपने माता-पिता (दूसरी पीढ़ी) अपने दादा-दादी (तीसरी पीढ़ी) और पितृपक्ष की ओर से यह निषेध व्यक्ति की पांच पीढ़ियों में से किसी पर भी लागू होता है।

केस- नीतू ग्रोवर बनाम भारत संघ और अन्य (2024)– दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5 के खंड (v) की संवैधानिकता की चुनौती को खारिज कर दिया और कहा कि दो हिंदू जो एक दूसरे के सपिंड हैं. यह धारा उनके विवाह पर रोक लगाती है।

क्निव से विवाह वर्तमान :- हिंदू विधि में क्लीव (Transgender) के साथ किया गया विवाह शून्यकरणीय है लेकिन ऐसा विवाह शून्य भी हो सकता है।

केस- कोरवेट बनाम कोरबेट (1970)- इस मामले में एक विवाह सपन्न हुआ। एक पुरुष और अन्य व्यक्ति के बीच जो जन्म के समय पुरुष था लेकिन विवाह से पहले लिंग परिवर्तन द्वारा वह स्त्री बन गया था और बतौर वह स्त्री के रूप में ही रह रहा था। पति द्वारा विवाह को शून्य घोषित करने की याचिका दायर की गई। न्यायालय ने कहा कि विवाह आवश्यक रूप से स्त्री और पुरुष का संबंध है और विवाह की विधिमान्यता इसी बात पर निर्भर करती है विपक्षी विवाह के समय स्ती थी या नहीं। विपक्षी क्योंकि जन्म से पुरुष था. इसी कारण उसका विवाह दूसरे पुरुष के साथ शून्य होगा।

हिन्दू विवाह का रजिस्ट्रेशन– हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में विवाह का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य नहीं है लेकिन अधिनियम की धारा 8 के अनुसार विवाह के रजिस्ट्रेशन के संबंध में नियम बनाने की शक्ति राज्य सरकार को दी गई है। यदि राज्य सरकार की राय हो कि रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होना चाहिए तो वह इस प्रकार उपबंध कर सकती है। इस संबंध में बनाए गए किसी भी नियम का उल्लंघन करने वाला व्यक्ति जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

केस- सीमा बनाम अश्विनी कुमार (2006) उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उन सभी व्यक्तियों का विवाह जो विभिन्न धर्मो के होते हुए भी भारत के नागरिक हैं, अपने अपने राज्यों में जहां विवाह का अनुष्ठान हुआ है. अनिवार्य रूप से रजिस्ट्रेशन योग्य बनाया जाना चाहिए।

हिंदू विवाह संविदा है या संस्कार– प्राचीन हिंदू विधि में विवाह हिंदू पति पत्नी में एक अटूट सबंध उत्पन्न करता था जिसे किसी भी अवस्था में तोड़ा नहीं जा सकता था। आज भी बहुत से हिंदू अपने विवाह को संस्कार ही मानते हैं। हिंदू विवाह एक संविदा है यह विचार आधुनिक युग की देन है। वर्तमान समय में औद्योगिक क्रांति ने स्वतंत्रता और समानता के विचारों को जन्म दिया है, जिस कारण हिंदू विवाह को एक संविदा के आधार पर माना जाने लगा है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में विवाह के धार्मिक स्वरूप को बदल दिया है। विवाह एक संस्कार के रूप में नहीं माना जा सकता।

विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम 1976 :- के द्वारा क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए जिसमें पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण और विवाह विच्छेद के आधारों का एकीकरण मुख्य बात है। इससे विवाह का संस्कारात्मक स्वरूप पूरी तरह से समाप्त हो गया है।

केस- पुरुषोत्तमदास बनाम पुरुषोत्तमदास (1895)- इस मामले में माना गया कि हिंदू विवाह एक संविदा है जो पक्षकारों के माता-पिता द्वारा की जाती है।

केस- भगवती शरण सिंह बनाम परमेश्वरी नंदन सिंह (1942)-न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह संविदा और संस्कार दोनों है।

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