केवल व्यापार के उद्देश्य से भारत में दस्तक देने वाली ईस्ट इण्डिया कंपनी ने शनैः-शनैः भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। व्यापार के साथ-साथ प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था में भी कंपनी का दखल बढ़ता चला गया। ब्रिटिश शासन कंपनी के इस विस्तार से चिन्तित था, अतः उसने कंपनी पर नियन्त्रण स्थापित करने का मानस बनाया। वहाँ की हाउस ऑफ कॉमन्स (House of Commons) द्वारा दो समितियाँ प्रवर समिति (Select Committee) एवं गुप्त समिति (Secret Committee) गठित की गई, जिनका कार्य कंपनी की व्यवस्थाओं का अध्ययन कर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। इन समितियों द्वारा अध्ययन के कुछ सुझाव दिए गए जिनके आधार पर दो अधिनियम पारित हुए जिनमें से एक रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 (Regulating Act, 1773) था। इसका मुख्य उद्देश्य कंपनी की गतिविधियों पर नियन्त्रण स्थापित करना था।
मुख्य प्रावधान – सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे :-
(1) संचालक मण्डल का पुनर्गठन :- ईस्ट इण्डिया की देखरेख और उसका प्रबन्ध दो संस्थानों के अधीन था-कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स (Court of Proprietors) एवं कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स (Court of Directors)। रेग्यूलेटिंग एक्ट की धारा 1 से 6 द्वारा इन दोनों संस्थाओं का पुनर्गठन किया गया।
कंपनी के संचालक मण्डल में कुल 24 सदस्य होते थे। अब इनका कार्यकाल निर्धारित किया गया और यह व्यवस्था की गई कि इन 24 सदस्यों में से एक-चौथाई अर्थात् 6 सदस्य प्रतिवर्ष अवकाश प्राप्त करेंगे तथा उनके स्थान पर नए सदस्यों का निर्वाचन किया जाएगा। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य संचालक मण्डल के सदस्यों के कार्यकाल पर नियन्त्रण स्थापित करना था। सदस्यता के लिए आवश्यक था कि सम्बन्धित व्यक्ति पूर्वी देशों अथवा अन्य विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में सेना अथवा अन्य लोकसेवा में नहीं रहा हो और यदि रहा हो, तो सेवानिवृत्ति के पश्चात् वह कम से कम दो वर्ष तक इंग्लैण्ड में निवास कर चुका हो।
मताधिकार अब केवल ऐसे व्यक्तियों को दिया गया जो अपने पास न्यूनतम 1000 पौण्ड की अमानत रखता हो। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के लिए यह क्षमता 2000 पौण्ड निर्धारित की गई। कोर्ट ऑफ प्रोपराइटर्स के लिए मत क्षमता 1000 पौण्ड ही रखी गई थी, लेकिन 3000 पौण्ड पर दो, 6000 पौण्ड पर तीन तथा 10,000 पौण्ड अथवा इससे अधिक पौण्ड पर चार मत देने की क्षमता रखी गई थी। इस प्रकार सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के सदस्यों के निर्वाचन, कार्यकाल एवं मताधिकार में आवश्यक परिवर्तन किए गए।
(2) संचालक मण्डल पर संसदीय नियन्त्रण :- रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा संचालक मण्डल पर संसदीय नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। इसके लिए अब यह आवश्यक कर दिया गया कि राजस्व सम्बन्धित समस्त पत्र व्यवहार तथा प्राप्त पत्रों अथवा दस्तावेजों की प्रतियाँ-
(i) भारत सरकार अथवा गवर्नर जनरल की दशा में ट्रेजरी तथा
(ii) सिविल अथवा मिलिट्री प्रशासन की दशा में सम्बन्धित सचिव को प्रेषित की जाए।
(3) सर्वोच्च सरकार अथवा परिषद :– रेग्यूलेटिंग एक्ट की धारा 7 से 12 तक में सर्वोच्च सरकार (Supreme Government) के बारे में प्रावधान किया गया। कलकत्ता की प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए अब गवर्नर एवं काउन्सिल के स्थान पर महाराज्यपाल (Governor General) की नियुक्ति की व्यवस्था की गई, जो सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए एक सर्वोच्च सरकार थी तथा वह बंगाल के प्रशासन के लिए यथावत रही। इसका नाम गवर्नर जनरल एण्ड काउन्सिल रखा गया तथा भारत के सन्दर्भ में यह सर्वोच्च सरकार कहलाती थी। इसमें कुल चार सदस्य होते थे।
इसे कलकत्ता प्रेसीडेंसी का सारा सैनिक एवं लोक प्रशासन तथा बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा प्रान्तों की मालगुजारी का कार्य सौंपा गया। निर्णय सारे बहुमत से लिए जाते थे। किसी विषय पर बराबर मत होने पर गवर्नर जनरल को विशेष मत (Casting Vote) देने का अधिकार था।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च सरकार को सर्वोच्च परिषद (Supreme Council) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। इसका कार्यकाल पाँच वर्ष रखा तथा इसमें प्रथम चार सदस्य के रूप में कर्नल मौनसम, क्लेवरिंग, फिलिप फ्रांसिस तथा रिचर्ड बारवेल नियुक्त किए गए थे।
(4) सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना :- सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट के पूर्व मेयर कोर्ट को व्यवस्था थी जिसके निर्णयों के विरुद्ध अपील कलकत्ता की प्रेसीडेंसी एण्ड काउन्सिल तथा इंग्लैण्ड को किंग-इन-कौंसिल (King-in-Council) में की जा सकती थी। मेयर कोर्ट का कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं था। यही कारण था कि इस एक्ट के अन्तर्गत एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर (Supreme Court of Judicature) की स्थापना की गई। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश होते थे। न्यायाधीश के पद पर ऐसे व्यक्ति नियुक्त हो सकते थे जो इंग्लैण्ड अथवा आयरलैण्ड के बैरिस्टर के रूप में न्यूनतम पाँच वर्षों का अनुभव रखते थे। इनकी नियुक्ति ब्रिटेन के सम्राट के द्वारा की जाती । प्रथम मुख्य न्यायाधीश के रूप में सर एलिजा इम्पे तथा अन्य न्यायाधीशों के रूप में फन कैंसर, ली मैस्ट्री जॉन हाइ तथा रॉबर्ट चैम्बर्स को नियुक्त किया गया।
इसे सभी प्रकार के सिविल, आपराधिक, सामुद्रिक तथा धर्म सम्बन्धी मामलों की सुनवाई की अधिकारिता प्रदान की गई थी। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपील किंग- कौंसिल (प्रिवी परिषद) में की जा सकती थी।
(5) सिविल सेवाओं में सुधार :- इस एक्ट के द्वारा सिविल सेवाओं में भी व्यापक सुधार किए गए। महाराज्यपाल के लिए 20,000 पौण्ड, कौंसिल के अन्य सदस्यों के लिए 10,000 पौण्ड, मुख्य न्यायाधीश के लिए 8,000 पौण्ड तथा अन्य न्यायाधीशों के लिए 6000 पौण्ड वार्षिक वेतन निर्धारित किया गया। ये किसी प्रकार का उपहार आदि स्वीकार नहीं कर सकते थे और न ही किसी प्रकार का अन्य व्यापार, व्यवसाय आदि स्वीकार कर सकते थे। इनका उल्लंघन करने वाले व्यक्ति दण्ड के भागी होते थे।
महाराज्यपाल, कौंसिल के सदस्य एवं न्यायाधीश सभी अपने-अपने क्षेत्रों में जस्टिस ऑफ पीस (Justice of Peace) होते थे। सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर को बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) आदि रिट जारी करने का अधिकार भी प्रदान किया गया।
(6) विधायी शक्तियाँ :- विधायी क्षेत्र में सुप्रीम कौंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट दोनों का हस्तक्षेप था। गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल द्वारा ऐसी विधियाँ, अधिनियम तथा अध्यादेश पारित किए जा सकते थे जैसे फोर्ट विलियम एवं उसके अधीन बस्तियों पर लागू होते थे। ऐसे कानून आंग्ल विधियों से असंगत नहीं हो सकते थे। ऐसे कानूनों का पूर्व प्रकाशन आवश्यक था। जनसाधारण को ऐसे कानूनों से अवगत करवाने के लिए इनका कोर्ट में सहज दृश्य स्थान पर प्रदर्शित किया जाना भी अपेक्षित था। इनका सुप्रीम कोर्ट में दर्ज होना भी आवश्यक था। इन सबके बारे में प्रावधान रेग्यूलेटिंग एक्ट की धारा 36 एवं 37 में किया गया था।
रेग्यूलेटिंग एक्ट की विशेषताएँ – रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 कई अर्थों में बड़ा महत्त्वपूर्ण था तथा अपने आपमें कई विशेषताएँ समाहित किए हुए था, यथा-
(1) इसके द्वारा कंपनी पर ब्रिटिश शासन का प्रभाव एवं नियन्त्रण स्थापित किया गया।
(ii) कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर (Supreme Court of Judicature) की स्थापना की गई, जो न्यायिक क्षेत्र की एक अद्भुत घटना थी।
(iii) न्याय प्रशासन को प्रथम बार कार्यपालिका से मुक्त किया गया और यहीं से न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पृथक्करण की परम्परा का सूत्रपात हुआ।
(iv) न्यायाधीशों के पदों पर विधि विशेषज्ञों अर्थात् विधि में पारंगत व्यक्तियों को नियुक्त किया गया।
(v) निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्याय प्रशासन के लिए गवर्नर जनरल, कौंसिल के सदस्य एवं न्यायाधीशों के भेंट, उपहार आदि स्वीकार करने पर प्रतिबन्ध सम लगा दिया गया।
(vi) इनके लिए निजी व्यापार, व्यवसाय आदि भी वर्जित कर दिए गए ताकि कि इनमें अनुशासन, निष्ठा और निष्पक्षता बनी रहे।
(vii) सिविल सेवाओं में सुधार के लिए गवर्नर जनरल, कौंसिल के सदस्यों तथा न्यायाधीशों के वेतन में अभिवृद्धि की गई।
(viii) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर को विभिन्न रिटें (Writs) जारी करने की अधिकारिता प्रदान की गई।
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोष-अनेक विशेषताओं के होते हुए भी रेग्यूलेटिंग एक्ट अनेक दोषों से परिपूर्ण था। इस एक्ट के मुख्यतया निम्नांकित दोष थे-
(i) गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल के सदस्यों में से अधिकांश भारत की परिस्थितियों से अवगत नहीं थे, अतः वे भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल सुझाव नहीं दे पाते थे।
(ii) निर्णय बहुमत से लिए जाते थे जिसके कारण गवर्नर जनरल महत्त्वपूर्ण नीतियों के बहुमत के अभाव में क्रियान्वित नहीं कर पाया था।
(iii) गवर्नर जनरल एण्ड काउन्सिल के सदस्यों में आपस में मतभेद होते रहने से न तो अनुकूल नीतियाँ बन पाती थीं और न ही क्रियान्वित हो पाती थीं।
(iv) कलकत्ता को गवर्नर जनरल अब अत्यन्त शक्तिशाली हो गया था, क्योंकि बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसी के गवर्नर तथा काँसिलों को उसके अधीनस्थ कर दिया गया था। इससे इनमें आपस में कटुता उत्पन्न होने लग गई थी।
(v) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर की स्थापना का अनुभव भी बड़ा कटु रहा। कई मामलों को लेकर गवर्नर जनरल एण्ड कौंसिल तथा सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। दोनों में शक्ति परीक्षण की होड़ भी लगी रहती थी।
(vi) सुप्रीम कोर्ट ऑफ जूडिकेचर की अधिकारिता (Jurisdiction) भी सुस्पष्ट नहीं थी। यह भी सुनिश्चित नहीं था कि निर्णय किस विधि के अन्तर्गत किए जाएँगे अर्थात् भारतीय रीति-रिवाजों, प्रथाओं के अनुसार अथवा आंग्ल विधि के अनुसार। वास्तविकता यह है कि सभी निर्णय आंग्ल विधि के अनुसार ही किए जाते थे।