प्राचीन हिन्दू विधि में विवाह के आठ रूप प्रचलित थे: जिनमें से सन् 1955 के पूर्व केवल तीन ही मान्य थे; ब्रह्म, असुर और गंधर्व।
:-हिन्दू विवाहों को दो भागों में बांटा गया था-अनुमोदित विवाह इसके अन्तर्गत आते हैं, ब्रह्म, अर्श, दैव और प्रजापत्य और नियमित इसके अन्तर्गत आते हैं, गांधर्व, असुर, राक्षस और पैचाश विवाह ।
ब्रह्म विवाह – मनु के अनुसार जब पिता वेदों में पारंगत और सच्चरित्र वर को निमन्त्रित करके हीरे- जवाहरातों का दान देकर, कन्या को बहुमूल्य आभूषणों से सजा कर दान में वर को देता है तो उसे ब्रह्म विवाह कहते हैं
ब्रह्म विवाह सबसे उच्च विवाह माना गया है। यह विवाह पूर्ण रूप से पिता द्वारा अपनी पुत्री का दान है। दूसरे शब्दों में, पुत्री पर अपने आधिपत्य का हस्तान्तरण पिता वर को अपनी स्वेच्छा से और बिना किसी अनुदान के करता है। प्रारम्भ में द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) ही इस भांति का विवाह कर सकते थे।
अंग्रेजी शासन-काल में वर का वेदों में पारंगत होना अनिवार्य नहीं रहा और ब्रह्म विवाह शूद्रों को भी उपलब्ध हो गया। इस विवाह की अन्य शर्तें जैसे बहुमूल्य आभूषणों से सजाना और हीरे-जवाहरात दान देना भी अनिवार्य नहीं रहा। सन् 1955 के पूर्व ब्रह्म-विवाह के लिये आवश्यक शर्त केवल यही रह गयी कि इसमें अवश्यम्भावी रूप से कन्या-दान होना चाहिये।
गान्धर्व विवाह – मनु के अनुसार एक कन्या का अपनी स्वेच्छा से अपने प्रेमी के साथ गठबन्ध जिनका जन्म वासना से होता है और जिसका ध्येय सम्भोग है, गांधर्व विवाह कहलाता है ।
मित्रमिश्र के अनुसार जब वर-वधू आपस में स्वेच्छा से विवाह-बन्धन में यह कहकर “तुम मेरे पति हो” “तुम मेरी पत्नी हो” बंध जाते हैं तो उसे गांधर्व के नाम से पुकारा जाता है। इस विवाह में भी अन्य विवाह की भांति वैवाहिक अनुष्ठानों का सम्पन्न करना आवश्यक है। यह एक अभूतपूर्व बात है कि उस समाज में जहां विवाह अवश्यम्भावी रूप से पिता द्वारा पुत्री पर अपने आधिपत्य का पति को हस्तान्तरण करता था, भी स्वेच्छा किये गये विवाहों को मान्यता दी गयी। स्पष्ट ही है कि उस समाज और समाज की विधियों के अन्तर्गत ऐसे विवाहों को अनियमित ही माना जा सकता था। आधुनिक युग में स्वेच्छा से किया गया विवाह ही सबसे श्रेष्ठ विवाह माना जाता है और अनेक देशों की विधि में स्वेच्छारहित विवाह शून्य (Void) है।
असुर विवाह – मनु के अनुसार जब वर अपनी इच्छा से वधू और वधू के नातेदारों को इतनी सम्पत्ति देकर जितनी कि वह दे सकता है, वधू को प्राप्त करता है तो वह विवाह असुर विवाह कहलाता है।
असुर विवाह पिता द्वारा कन्या का विक्रय ही लगता है, अनुदान में पिता चाहे चल सम्पत्ति ले या अचल सम्पत्ति या रोकड़ ले। अनेक प्राचीन समाजों में क्रय द्वारा विवाह प्रचलित थे। हिन्दू आचार्यों ने इस भांति के विवाह का कभी अनुमोदन नहीं किया है और हिन्दू समाज में इस विवाह को हेय ही माना जाता रहा है। इसका प्रचलन निम्न वर्गों के लोगों में ही था। सन् 1955 के पूर्व सभी जातियों के लिये यह विवाह मान्य और वैध था। यह ध्यान देने की बात है कि वर और वधू पिता या अन्य नातेदारों के बीच विवाह अनुदान के रूप में कुछ देने का अनुबन्ध लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है, चाहे उस अनुबन्ध के अन्तर्गत विवाह सम्पन्न भी हो गया हो। यदि अनुदान की रोकड़ या सम्पत्ति का भुगतान कर दिया गया हो तो उसे वापस वसूल नहीं किया जा सकता है।
:-वर्तमान हिन्दू विधि में विवाह का रूप-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 किसी भी प्रकार के विवाह का विनिर्दिष्ट उपबन्ध नहीं बनाता है। अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न प्रत्येक विवाह “हिन्दू विवाह” कहलाता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि अब ब्रह्म, असुर, गान्धर्व विवाह नहीं हो सकते हैं। ये विवाह अब भी हो सकते हैं, इन सब विवाहों के लिये अधिनियम में निर्धारित अनुष्ठानों का सम्पन्न करना आवश्यक है। अब ये सब विवाह अनुमोदित विवाह ही होंगे। अधिनियम के अन्तर्गत अनुमोदित और अनियमित विवाहों का प्रभेद मान्य नहीं है।दूसरे दृष्टिकोण से हम पाते हैं कि हिन्दू विवाह दो भांति के हैं-एक वे जो वर-वधू की स्वेच्छा से सम्पन्न होते हैं और दूसरे वे जो माता-पिता या अन्य नातेदारों द्वारा व्यवस्थित किये जाते हैं। वर-वधू का स्वेच्छा द्वारा विवाह गांधर्व-विवाह ही कहलायेगा। व्यवस्थित विवाह ब्रह्म विवाह हो सकता है या असुर विवाह । उच्च वर्ग में दहेज-प्रथा प्रचलित है। वर्तमान युवा पीढ़ी में गांधर्व विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है।हिन्दू विवाह में अनुष्ठानों का सम्पन करना अब भी आवश्यक है। आडम्बर, ठाट-बाट, धूमधाम, सजावट और प्रदर्शन हिन्दू विवाह का अब भी अभिन्न अंग है, परन्तु अनिवार्य नहीं है। अनिवार्य अंग केवल कुछ अनुष्ठानों का सम्पन्न करना ही है, और इन्हें बिना किसी आडम्बर और ठाटबाट के भी किया जा सकता है।