जब विवाह का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के साथ रहने से इनकार करता है तो वह पक्षकार दूसरे पक्षकार को साथ रहने के लिए बाध्य कर सकता है। पीड़ित पक्षकार न्यायालय में दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का वाद दायर कर सकता है। प्रत्यास्थापन की डिक्री का मतलब है न्यायालय दोषी पक्षकार को निर्दोष पक्षकार के साथ रहने की आज्ञा देता है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 के अनुसार जब पति या पत्नी में से किसी ने बिना किसी युक्तियुक्त कारण के एक दूसरे से अपना साहचर्य प्रत्याहरत कर लिया है तब दूसरा पक्षकार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए याचिका द्वारा आवेदन जिला न्यायालय में कर सकता है और न्यायालय ऐसी याचिका में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार ना होने पर दापत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए डिक्री देगा।

आधार :- दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री प्राप्त करने के लिए न्यायालय में प्रार्थना पत्र दिया जा सकता है लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 के अनुसार न्यायालय डिक्री तभी देगा जब यह बातें साबित कर दी जाए-

1) दो में से किसी पक्ष ने बिना युक्तियुक्त कारण के दूसरे पक्ष के साथ रहना त्याग दिया हो।

2) दांपत्य अधिकार के प्रत्यास्थापन के लिए दिए गए प्रार्थना पत्र से न्यायालय संतुष्ट हो गया हो।

3) प्रार्थना पत्र अस्वीकार करने का कोई वैध आधार ना हो।

युक्तियुक्त आधार :- इन्हें युक्तियुक्त आधार माना गया है-

1) गंभीर और अभद्र व्यवहार।

2) इस सीमा तक मद्यपान करना जिससे वैवाहिक जीवन के कर्तव्य का पालन असंभव हो जाए।

3) पत्नी की फिजूलखर्ची के कारण भविष्य पर कुप्रभाव डालना।

4) प्रत्यर्थी (respondent) के विरुद्ध अप्राकृतिक अपराध का झूठा आरोप लगाना।

5) प्रत्यर्थी की विकृतचित्तता उसके साथ मारपीट की आशंका।

6) अलग रहने का समझौता।

7) क्रूरता

8) पति द्वारा पत्नी पर अस्तीत्व के आरोप पर अड़े रहना।

दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के अनुतोष की संवैधानिकता :-

केस- टी सरीथा बनाम वेंकैया सुब्बाया (1983)- न्यायाधीश चौधरी के अनुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का अनुतोष एक कू्र, असभ्य और अमानवीय प्रावधान है। यह व्यक्ति के मानव मर्यादा और एकांतता के मौलिक अधिकार का हनन करता है। न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि यह अनुतोष असंवैधानिक है।

केस- सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार (1984)– न्यायाधीश सव्यसाची मुखर्जी ने कहा कि दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन कानून संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के विरुद्ध नहीं है।

सबूत का भार :- विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम 1976 के द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 में एक स्पष्टीकरण जोड़ दिया गया जिसमें यह कहा गया है कि विवाह के एक पक्षकार का दूसरे पक्षकार से अलग रहने का यदि कोई युक्तियुक्त कारण का प्रश्न उठे तो वहां युक्तियुक्त कारण को सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साथ रहने को अस्वीकार कर दिया है।

केस- गुरुदेव बनाम लावन सिंह (1955)– दांपत्य अधिकार के प्रत्यास्थापन की कोई भी याचिका तब तक सफल नहीं होती जब तक यह दर्शित न किया जाए कि साथ ना रहने के लिए कोई आधार युक्तियुक्त नहीं है।

केस- पल्लवी भारद्वाज बनाम प्रताप चौहान (2011)- जहां लड़की द्वारा विवाह की विद्यमानता से स्पष्ट इनकार किया गया हो और ना ही कोई वैध दस्तावेज उपलब्ध है, ना ही विवाह का साक्ष्य उपलब्ध है तो दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का कोई प्रश्न ही नहीं उठाता।

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