सामान्य नियम यह है कि अगर किसी व्यक्ति द्वारा सावधानी बरतने पर भी उसके किसी कार्य से किसी दूसरे व्यक्ति को हानि पहुंचती है तो वह क्षति के लिए तब तक जिम्मेदार नहीं माना जाता जब तक कि यह साबित ना हो जाए कि उसने जानबूझकर उस व्यक्ति को हानि पहुंचाई है।

दो नियमों के अंतर्गत प्रतिवादी के दायित्व को मान्यता दी गई है-

1) कठोर दायित्व का नियम (Strict Liability)

2) पूर्ण दायित्व का नियम (Absolute Liability)

कठोर दायित्व का नियम :- 1868 में सबसे पहले इंग्लैंड में हाउस आफ लॉर्डस के द्वारा रॉयलैंड्स बनाम फ्लैचर के मामले में इस नियम को दिया गया, इसलिए इसे रायलैंड्स बनाम फ्लेचर के नियम के नाम से भी जाना जाता है।

कठोर दायित्व का मतलब है, इसके अंतर्गत प्रतिवादी दोष के बिना ही जिम्मेदार हो जाता है लेकिन कई अपवाद ऐसे है जिनमे प्रतिवादी को मुक्ति मिल जाती है।

कठोर दायित्व के नियम में प्रतिवादी को जिम्मेदार ठहराने के लिए वादी को ये बातें साबित करनी पड़ेगी-

1) प्रतिवादी द्वारा अपनी भूमि पर कोई खतरनाक वस्तु लाई गई थी।

2) इस तरह लाई गई वस्तु सीमा से बाहर चली गई है।

3) भूमि पर ऐसी चीज का आना प्रतिवादी द्वारा भूमि का स्वाभाविक उपयोग नहीं है।

4) वादी को ऐसी चीज के निकल जाने की वजह से क्षति पहुंची है।

केस- रायलैंड्स बनाम फ्लेचर (1868)– इस मामले में प्रतिवादी ने एक स्वतंत्र ठेकेदार से एक जलाशय का निर्माण कराया। इस जलाशय के निर्माण के नीचे कुछ सुरंगे थी जिनका पता ठेकेदार को नही था, जलाशय जब पानी से भरा गया तो पानी इन सुरंगों में भी पहुंच गया और वादी की कोयले की खानों में भर गया। प्रतिवादी को इस सुरंग का ज्ञान नहीं था लेकिन जस्टिस ब्लैकबर्न द्वारा दिए गए सिद्धांत के आधार पर उन्हें दोषी ठहराया गया।जस्टिस ब्लैकबर्न ने कठोर दायित्व के नियम के कुछ अपवाद बताये जिसमें प्रतिवादी को कु है- कुछ छूट मिल सकती

1) भूमि पर प्राकृतिक ढंग से होने वाली वस्तुओं के कारण क्षति– जहां कोई व्यक्ति अपनी ज़मीन पर प्राकृतिक ढंग से किसी वस्तु को रखता है चाहे कितनी ही खतरनाक हो उसके लिए ए स स्वामी का कोई दायित्व नहीं होता।

केस- नीथ बनाम विलियम्स (1965)- न्यायालय ने कहा कि स्वाभाविक रूप से होने वाली वस्तु के लिए प्रतिवादी का कोई दायित्व नहीं होता।

2) वादी की स्वयं की गलती- यदि वादी की खुद की गलती से प्रतिवादी की संपत्ति पर गलत प्रवेश करने के कारण कोई वस्तु क्षतिग्रस्त हो जाती है तो नुकसान के लिए प्रतिवादी जिम्मेदार नहीं होगा।

केस- पोटिंग बनाम नॉक्स– प्रतिवादी की भूमि पर एक ज़हरीला पेड़ था। वादी के घोड़ा की उसके पत्ते खाने से मृत्यु हो गई। यदि वादी का घोड़ा प्रतिवादी की भूमि पर प्रवेश न करता तो कोई हानि नहीं होती। इसलिए प्रतिवादी को उसके लिए दायी नहीं ठहराया गया।

3) दैवी कार्य– ऐसे कार्य जो प्रकृति के होते हैं और जिनका कोई अनुमान नही लगाया जा सकता था। जैसे- तूफान, आंधी, बिजली की चमक, असाधारण वर्षा आदि।

केस- निकोलस बना मार्सलैंड– इस मामले में प्रतिवादी ने अपनी भूमि पर कुछ झीलों का निर्माण किया। वर्षा के कारण झील के बांध टूट गए जिससे वादी के चार पुल बह गए। वादी ने वाद दायर किया। प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं ठहराया क्योंकि दुर्घटना का कारण दैवी कार्य था।

4) वादी की सहमति – जहां वादी ने प्रतिवादी की भूमि पर खतरनाक वस्तु इकट्ठा करने की सहमति दे दी है, वहां प्रतिवादी का दायित्व नहीं होगा।उदाहरण के लिए- यदि मकान की छत पर रखी पानी की टँकी के फटने के कारण वादी के सामान को नुकसान हो जिसके पानी के प्रयोग की वादी ने सहमति दी थी, तो प्रतिवादी दायी नही होगा।

5) सामान्य हित के कार्य– यदि खतरे की वस्तु प्रतिवादी की भूमि पर वादी और प्रतिवादी दोनों के हित के लिए रखी गई है तो क्षति के लिए प्रतिवादी दायी नहीं होगा

केस- कारस्टेयर बनाम टेलर (1971)- इस मामले में वादी ने प्रतिवादी से घर किराए पर लिया हुआ था। घर की ऊपरी मंजिल पर रखा पानी का टैंक रिसने लगा जिसमें प्रतिवादी की कोई लापरवाही नहीं थी। जिस कारण घर के निचले भाग में रखा वादी का माल खराब हो गया। वादी और प्रतिवादी दोनों के लाभ कलाभ के लिए ही जल को रखा गया था इसलिए प्रतिवादी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया।

6) किसी अजनबी का कार्य– यदि क्षति किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य से हुई है उसका एजेंट है तो उसके लिए प्रतिवादी जिम्मेदार नहीं होगा। जो ना तो प्रतिवादी का सेवक है ना ही उसका एजेंट है उसके लिए प्रतिवादी जिम्मेदार नहीं होगा।

केस- मध्यप्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम शैल कुमार (2002)- इस मामले में एक व्यक्ति रात के समय साइकिल से घर जा रहा था। रास्ते में एक बिजली का तार टूटा हुआ पड़ा था। बारिश का पानी भरा हुआ था, जिस कारण वह तार को नहीं देख पाया और करंट लगने के कारण उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने बिजली बोर्ड को दुर्घटना के लिए जिम्मेदार ठहराया। न्यायालय ने कहा कि बिजली बोर्ड का प्रबंध ऐसा होना चाहिए था कि कभी भी किसी बिजली का तार टूटने से अपने आप करंट आना बंद हो जाए।

7) कानूनी द्वारा प्राधिकृत कार्य– यदि किसी कार्य से कोई क्षति हो जाती है, जो कानून द्वारा अधिकृत हो तो उसके लिए भी प्रतिवादी दायी नहीं होगा। बशर्ते कि उस कार्य को करने में असावधानी ना बरती गई हो।

केस- ग्रीन बनाम चेल्सिया वाटर वर्क्स कंपनी (1894)- संसद द्वारा प्राधिकृत एक कंपनी द्वारा लगाया गया सड़क का मेनहॉल फट गया, जिससे वादी के अहाते में पानी भर गया। न्यायालय ने कंपनी को दायी नहीं ठहराया।

पूर्ण दायित्व का नियमएम सी मेहता बनाम भारत संघ (1987)– उच्चतम न्यायालय ने पूर्ण दायित्व का नियम प्रतिपादित किया। इस मामले में ओलियम गैस के रिसने के कारण अनेक व्यक्तियों पर हानिकारक प्रभाव पड़ा। न्यायालय ने कहा कि ऐसी दुर्घटनाओं में गैस पीड़ितों को कठोर दायित्व के नियम के अंतर्गत कोई राहत देने की संभावना इसलिए नहीं थी क्योंकि इस नियम के कई अपवादों के कारण प्रतिवादी अपने दायित्व से बच सकता था। इसे पूर्ण दायित्व का नियम इसलिए कहते हैं क्योंकि इसके अंतर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है और इस नियम के अंतर्गत कठोर दायित्व के अपवाद भी मान्य नहीं होते हैं जिन्हें रॉयलैंड्स बनाम फ्लेचर के मामले में दिया गया था।

केस- यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन बनाम भारत संघ (1990)- इस मामले में भोपाल में यूनियन कार्बाइड की एक फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसायनाइड जहरीली गैस रिसने के कारण लगभग 4000 लोगों की मृत्यु हो गई थी और लाखों लोग कई प्रकार की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो गए थे। उच्चतम न्यायालय ने पूर्ण दायित्व के नियम को ही लागू किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि यूनियन कार्बाइड कंपनी मुआवजे के रूप में भारत सरकार को 750 करोड़ रुपए दे।

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