:-इमाम अबु हनीफा(699ई. से 767ई.):-

अबु हनीफा इब्न नौमान इब्न साबित, जो कि इमाम अबु हनीफा के नाम से प्रचलित हैं और जिन्होंने हनफ़ी स्कूल की नींव रखी थी, इनका जन्म 699 ई० (80 अ० हि०) में कुफा में हुआ था।

इमाम अबु हनीफा ने इस्लामिया विधि शास्त्र की शिक्षा कुफा शहर में प्राप्त की इन्हें अनस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो कि पैगंबर मोहम्मद के साथ ही थे।

12 साल की उम्र में अबु हनीफा सदिक के रूप में इमाम जाफर की व्याख्यान में सम्मिलित हुए।

एक सोवी अ० हि० में अबु हनीफा इमाम हम्मद की संस्था जो कि इब्राहिम नखायी के शिष्य और प्रसिद्ध विधिवेत्ता थे, के सदस्य बने। उन्होंने इस्लामिया विधिशास्त्र की शिक्षा अपनी कुशलता और कभी न थकने वाले परिश्रम की वजह से पूरी की और इस्लामिक विधिशास्त्र की दुनिया में एक सूरज की तरह उभर कर आये।

वे आर्थिक तौर पर स्वयं समृद्ध थे। उनका जीवन निर्वाह कपड़ों के व्यापार पर निर्भर था। वे कई बार हज यात्रा पर गए। उनका मानना था कि कुरान और हदीश के बिना फिक्ह का अध्ययन सम्भव नहीं है।

इमाम हम्मद की 120 अ० हि० में मृत्यु के पश्चात् वे उनके उत्तराधिकारी बने और आम जनता और शिष्यों के समक्ष फिक्ह पर उपदेश दिये। आम जनता के बीच खुलेआम व्याख्यान की वजह से उनको प्रसिद्धि एक महान विधिवेत्ता के रूप में फैली। उनको सुनने के लिये प्रतिदिन हर कोने से लोग आते थे। अबु हनीफा असाधारण प्रतिभा के धनी थे। वह एक सच्चे न्यायशास्त्री थे। वह विचारशीलता और अनुमान लगाने जैसी शक्तियों के स्वामी थे। उनकी स्मरणशक्ति और गहरी समझ ने ही उनको महान विधिवेत्ता के रूप में ख्याति दिलायी। उन्होंने ऐसे विधिवेत्ताओं को श्रेणी तैयार की थी जिनको न सिर्फ विधि अपितु अन्य कायदे कानून के सम्बन्ध में भी महारत हासिल थी। उनके मुख्य शिष्यों में अबु युसुफ, इमाम मोहम्मद, शाहयबानी एवं ज़फर के नाम मुख्य हैं। यह सब भी हनाफी स्कूल के विकास से जुड़े हुये हैं। इन सब ने अबु हनीफा के सिद्धान्तों की रक्षा न सिर्फ उनके वंशजों के लिये की अपितु अपने ज्ञान को भी बढ़ाया।

अबु हनीफा एक धार्मिक और सच्चरित्र व्यक्ति थे। उन्होंने कभी कोई भी सरकारी पद स्वीकार नहीं किया। इस वजह से वह शासकों और अब्बासी उम्मेद के शिकार बने। 132 अ० ह० में उन्होंने इस्लामिक विधि को सूचीबद्ध करने के लिये 40 सदस्यों की कमेटी का गठन किया। इस कमेटी को यह कार्य पूर्ण करने में 22 साल लगे थे। यह कहा जाता है कि उन्होंने पाँच लाख विधि संबंधी समस्याएं हल की थीं। इस प्रकार जो संग्रह क्रमबद्ध किया गया वह “कुतुब अबु हनीफा” के नाम से जाना जाता है। संहिता बन जाने के बाद कुफा की जामा मस्जिद में अबु हनीफा ने अपने शिष्यों और अन्य गणमान्य लोगों के समक्ष अपना भाषण देते हुए कहा “मैंने इस्लाम के विधि सिद्धान्तों की संहिता बनाने का कार्य पूर्ण कर दिया है तथा इस्लामी विधि शास्त्र वह स्थान ग्रहण कर चुका है कि आगे की पीढ़ी अपनी विधि संबंधित समस्याओं को हल करने के लिए इस मदद लेगी तथा मैं यह घोषित करता यह हुए खुशी महसूस कर रहा हूं कि मेरे शिष्यों को इस्लामी विधि शास्त्र के क्षेत्र में महारत हासिल है और उनमें से 40 लोग काजी के पद के लिए पूर्ण रूप से योग्य है एवं उन 40 में से 10 लोग अन्य लोगों को काजी के पद के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं।

उन्होंने अपने शिष्यों को यह भी आदेश दिया कि वह फिक्ह के ज्ञान को अपने तक सीमित न रखकर हर जगह फैलायें तथा दिन में पाँच बार नमाज अदा करें और मानवता की भलाई के लिये कार्य करें। इस महान विधिवेत्ता की 15 शहवाल 150 अ० ह० के दिन 70 साल की आयु में मृत्यु हो गई।

इस्लामिक विधिशास्त्र के सभी स्कूलों में इनके स्कूल की प्रसिद्धि इतनी अधिक थी कि आज भी अधिकतर मुस्लिम जनसंख्या हनाफी स्कूल का अनुसरण करती है।

:-हनफी स्कूल के विधि सिद्धान्त:-

इसकी मुख्य विशेषताएं – इस्लाम धर्म का अरब की सीमाओं के पार विस्तार, खलीफात को नींव और संगठन, इस्लामिक राज्यों का विस्तार तथा उसमें नयी ज़मीनों का विलय इन सब बातों ने विभिन्न संस्कृतियों और जातियों को जन्म दिया। इस्लामिक समाज को कई राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी समस्याओं का सामना करना पड़ा। वह इमाम अबु हनीफा थे जिन्होंने वक्त की मांग को समझा और एक पवित्र उद्देश्य के साथ कुरान के संदेशों को हज़रत मोहम्मद (स०) के उपदेशों के प्रकाश में इस्लामिक विधिशास्त्र की विधिवत शिक्षा ग्रहण की और इस्लामिक विधि को संहिता का रूप प्रदान किया। इस कार्य में उनको उनके विद्वान शिष्यों का भी सहयोग हासिल हुआ। जैसे कि इमाम अबु युसुफ, ज़फर इमाम मोहम्मद जो कि अन्य मसलों में भी निपुण थे।

:-विधि सिद्धान्तों को विकसित करने का तरीका:-इमाम अबू हनीफा के सिद्धान्त कुरान और हदीस पर आधारित थे। उनके अनुसार कुरान अपने मौलिक रूप में अनन्त है। यह खुदा के उपदेशों और शब्दों का संग्रह है तथा इसको खुदा से अलग नहीं किया जा सकता है।उनके अनुसार कुरान विधि का पहला और मुख्य स्रोत है। नैतिक सिद्धान्तों का भी यही मुख्य स्रोत है।

दूसरा महत्वपूर्ण स्त्रोत उनके अनुसार वह परम्पराएं हैं जो विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न तरीकों से व्यक्त की गईं। वह किसी भी परम्परा को स्वीकारने और अस्वीकार करने में काफी सख्ती बरतते थे। यह भी कहा जाता है कि हज़रत मोहम्मद के रिवाजों के सम्बन्ध में भी वह काफी सावधान रहते थे। क्योंकि उनके समय में जालसाजी आम बात थी। इब्त खालदून ने लिखा है कि इमाम अबु हनीफा ने सिर्फ सत्रह परम्पराओं को बताया है तथा कयास और अनुमान को ही अधिक महत्व दिया था। इसका मतलब वह अनुमान जो कुरान के संदेशों पर आधारित होते थे और उनकी राय द्वारा परखे हुए होते थे। इसमें कोई शक नहीं है कि वह समकालीनों की अपेक्षा किसी भी विधि समस्या के हल को पाने के लिये परम्पराओं पर कम और कयास पर अधिक बल देते थे। इसके बावजूद यह कहना गलत है कि अबु हनीफा को परम्पराओं का ज्ञान नहीं था या वह उनको विधि का वैध स्रोत नहीं मानते थे। कुफा ज्ञान का एक प्रमुख केन्द्र था जहाँ पर हज़रत मोहम्मद के 1500 साथी स्थायी रूप से निवास करते थे। तथा अबु कबीर के अनुसार अबु हनीफा ने वहाँ पर 4000 विद्वानों से हदीस की शिक्षा प्राप्त का थी। इसलिये यह कहना गलत है कि अबु हनीफा को परम्पराओं का ज्ञान नहीं था या वे परम्पराओं को विधि का स्रोत नहीं मानते थे। महान् इमामों के बारे में यह बातें सच नहीं हैं। क्योंकि विधि का आधार कुरान है तथा सुत्रा। लेकिन उनमें से कुछ अपने कठिन परीक्षण की वजह से कम परम्पराओं का इस्तेमाल करते हैं। परम्पराओं के सम्बन्ध में अबु हनीफा दूसरे अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक सख्त थे तथा जो परीक्षण वह परम्पराओं के सम्बन्ध में इस्तेमाल करते थे उस वजह से वह परम्पराएं जो दूसरे लोग सही मानते थे वह उनको भी अस्वीकार कर देते थे।

क़यास को वरीयता – अबु हनीफा पहले विधिवेत्ता थे जिन्होंने क़यास को वरीयता प्रदान की तथा कयास की मदद से नये सिद्धान्तों को विकसित करने के लिये नियमित नियम निर्धारित किये। अबु हनीफा से पहले क़यास का प्रयोग कभी-कभार होता था। इससे पहले क़यास नियमित पद्धति का अंग नहीं था। अबु हनीफा ने कयास को उस मुकाम पर पहुँचाया जहाँ पर वह कभी नहीं थी। क़यास एक व्यवस्थित राय का नाम है तथा वह तो कुरान पर या परम्परा या इज्मा पर आधारित होनी चाहिये।

1. सराहतलनस (कुरान के विषय के अनुसार)

2. दलालतलनस (कुरान के वाक्यों के आधार के अनुसार)

3. इशारुतलनस (कुरान के वाक्यों के संकेतों के अनुसार)

4. गयातलनस (कुरान के वाक्यों के उद्देश्यों के अनुसार)

उनकी विचारशीलता कुरान और हदीस पर आधारित थी। उनका कहना था कि हम दूसरों को अपनी राय अपनाने के लिये मजबूर नहीं कर सकते। अगर वह हमारी राय से इत्तेफाक नहीं रखते तो वह दूसरों की राय स्वीकार कर सकते हैं। और परम्पराओं के सम्बन्ध में उनका कहना था कि हमको क़यास और राय के मुकाबले में कमजोर हदीस को भी वरीयता देनी चाहिये। इसलिये किसी भी समस्या को हल करते वक्त वह पहले उसका जवाब कुरान में देखते थे, उसके बाद हज़रत मोहम्मद की परम्पराओं को तथा उसके बाद कयास अपनाते थे। कयास के सिद्धान्तों के आधार पर उन्होंने कई विधि समस्याओं को हल किया था।उनका झुकाव विधिक समस्याओं को सुलझाने के लिए कयास की तरफ ज्यादा था जिसकी वजह से उन पर और उनके समर्थकों के ऊपर यह आरोप लगा कि वे फिक्ह के सिद्धान्तों को राय और क़यास के पैमाने पर रखते थे जिसकी वजह से परम्पराओं को नजरअंदाज कर देते थे। इसी वजह से उन लोगों को “अहलाला रे” की उपाधि मिली (निजी निर्णयों के समर्थक)। यह आरोप बेबुनियाद और अमान्य है। दरअसल वे कयास के सिद्धान्तों पर अमल करते थे और उसी बुनियाद पर शेरिया के मसलों को सुलझाते थे मगर उनके तर्क परम्पराओं और मोहम्मद साहब के विचारों से प्रभावित होते थे एवं उनको कुरान का आधार मानते थे।

इस्तिहसान अर्थात् वैधानिक वरीयता – इमाम अबु हनीफा इस्तहसान के सिद्धान्तों के लिये मशहूर हुए जिसका अर्थ कानून के लिये वरीयता और कर्म के लिये तत्परता है। कुरान और हदीस के द्वारा विधि के निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये एक विधिवेत्ता को अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह सिद्धान्त सुत्रियों में सक्रिय है, जो कयास कुरान और मोहम्मद साहब के विचारों की आधारशिला पर खरा नहीं उतरता तो उसका तिरस्कार कर दिया जायेगा। अबु हनीफा की सोच एक कदम आगे थी। उनके अनुसार अगर किसी मसले पर संतोषजनक उपाय नहीं मिला, इस वजह से कि वह न्याय की परिधि से बाहर है या इस वजह से कि वह जनहित में नहीं है और चूंकि इन कारणों से मुसीबतों का सामना करना पड़े तो न्यायवेत्ता के लिये यह जरूरी हो जाता है कि वह इसका तिरस्कार कर उचित इस्तिहसन और न्याय के सिद्धान्तों को अपना लें एवं कुरान और हदीस के सिद्धान्तों को साकार कर हनाफी विद्यालय की उन्नति में योगदान दें।

इस्लामिक विधि निर्माण का मूल उद्देश्य समाज और व्यक्ति विशेष के साथ न्याय करना है। इसी में मानव जाति का उद्धार है। दरअसल क़यास के सिद्धान्तों में अनुरूपता के मुकाबले कम खामियों की गुंजाइश है। अबु हनीफा ने इस्तिहसन को एक स्पष्ट और खास जगह प्रदान की है जिसके द्वारा इस्लामिया विधिशास्त्र में विधि के सिद्धान्तों को वास्तविक रूप में देखा गया है। अबु हनीफा के विधि के सिद्धान्तों पर अमल करने की वजह इन उदाहरणों से साफ होती है-

1. एक बार अबु हनीफा से यह पूछा गया कि अगर किसी बर्तन से पानी पिया जाये जिसका तला चाँदी का हो तो क्या यह जायज है? उन्होंने उत्तर दिया कि यह हाथ से पानी पीने के समान है जिसकी अंगुली में अंगूठी हो।

2. इस्लामिक विधि में विधिक इकरारनामे के लिये यह जरूरी है कि संविदा के समय संविदा की विषय-वस्तु अस्तित्व में हो।

सादृश्य तौर पर जिरह करते हुए उन्होंने कहा कि वह वस्तु जिसका विवरण और मूल्यों के तहत एक इकरारनामे का समझौता किया गया है वह विश्वव्यापी रिवाज है जो मानव जाति के हित में है इसलिये पवित्र कुरान के विपरीत नहीं है।

3. एक नियम यह भी है कि अगर कोई चीज धोई गई है तो उसको निचोड़ना भी चाहिये। यह केवल कपड़ों पर लागू होता है न कि लकड़ी और धातु के सामानों पर, इस्तिहसन इस मामले में उस वस्तु को केवल साफ रखना पर्याप्त मानता है।इस्तिहसन के बारे में हनाफी विधिवेत्ताओं का कहना है कि यह तुलनात्मक निष्कर्ष पर पहुंचने का एक प्रकार है तथा अदृश्य अवस्था में है। हालांकि जहाँ तक वास्तविक सिद्धान्तों का सवाल है तो इस्तिहसन अथवा वैधानिक पक्षपात हीनता में अनुकूलता का समावेश है और इसने इस्लामिक विधि विचार को काफी प्रभावित किया है। इसका सारा दारोमदार इमाम अबु हनीफा को जाता है जिनका मत है कि समाज के गहन समस्याओं पर तुलनात्मक प्रक्रिया पर निर्भर रहने से समाज का उद्धार नहीं है। विधि के सिद्धान्तों की इन समस्याओं से निपटाने के लिये इस्तिहसन एक मात्र मार्ग है।

इमाम अबु हनीफा और इजमा (एकमत विचार) – अबु हनीफा ने इज्मा अथवा एकमत विचार के सिद्धान्तों को भी स्वीकार किया। उनका इजमा के प्रति काफी विस्तारपूर्वक एवं परिपूर्ण दृष्टिकोण था जो समकालीन विधिवेत्ताओं को भी मात करता था। कुछ लोगों की यह राय थी कि इजमा की प्रामाणिकता हज़रत पैगम्बर मोहम्मद तक ही सीमित रखनी चाहिये एवं कुछ उनके उत्तराधिकारी तक मान्य हैं। परन्तु अबु हनीफा ने इज़मा की प्रामाणिकता को हर काल में मान्य माना है।

उर्फ अथवा रीति और इस्तिदलाल- अबु हनीफा ने स्थानीय प्रथाओं को भी विधि का स्रोत माना है। यह अल अशबाह वन नधाइर में पाया जाता है। बहुत सारे निर्णायक फैसले स्थानीय रीति रिवाजों की मदद से लिये गए थे। वे अब विधि सिद्धान्तों में परिवर्तित कर दिये गये हैं।

अबु हनीफा भी कुरान और पैगम्बर साहब की परम्पराओं को दूसरे विधिवेत्ताओं की तरह मुख्य स्रोत समझते थे। इसके बाद इजमा और फिर क्रयास स्रोत के प्रथाओं को द्वितीय स्रोत के रूप में मानते थे। रूप में आते हैं।

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *