शीला बारसे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र AIR. 1983 SC.378

मामले के तथ्य :- शीला वारसे बनाम महाराष्ट्र राज्य’, के मामले में शीला बारसे नामक पत्रकार द्वारा एक पत्र के माध्यम से उच्चतम न्यायालय को बम्बई शहर में पुलिस बन्दी गृह में महिलाओं के साथ अभिरक्षा के दौरान पुलिस द्वारा हिंसा एवं यातना दिए जाने की शिकायत की गई। पत्र के माध्यम से उसने बताया कि पिटीशनर पत्रकार ने इन्स्पेक्टर जनरल की अनुमति से बम्बई की सेन्ट्रल जेल की 15 कैदी स्त्रियों से 11 से 17 मई 1982 के दौरान साक्षात्कार किया। उनमें से पाँच स्त्रियों ने बताया कि उनके साथ पुलिस बन्दी गृह में रहते हुए पुलिस कर्मचारियों द्वारा मारपीट, हमला (Assault) एवं यातनाएँ दी गईं।

पिटीशनर ने विशेष रूप से दो स्त्रियों के नाम देवम्मा एवं पुष्पा पाइन इंगित किए, जिनके साथ पुलिस द्वारा यातनाएँ एवं दुर्व्यवहार किया गया। उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनर के पत्र को याचिका पिटीशन मानते हुए महाराष्ट्र राज्य, महानिरीक्षक कैद, महाराष्ट्र सुपरिन्टेन्डेन्ट बम्बई सेन्ट्रल जेल एवं महानिरीक्षक पुलिस महाराष्ट्र को नोटिस जारी किए तथा उनसे स्पष्टीकरण मांगा कि क्यों न रिट पिटीशन की अनुमति दी जाए?रेस्पोण्डेन्स द्वारा प्रतिवाद इसके जवाब में किसी भी पक्षकार ने जिन्हें नोटिस भेजे गए थे उनमें से किसी ने भी जवाब के लिए दी गई समयावधि में शपथ-पत्र प्रस्तुत नहीं किया, अतः न्यायालय को कार्यवाही को स्थगित करना पड़ा ताकि सम्बन्धित महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य पक्षकार पिटीशनर के पत्र में कहे गये कथनों का जवाब शपथ-पत्र पर दे सकें। इस बीच उच्चतम न्यायालय ने (मिस) ए. आर. देसाई, ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ निर्मला निकेतन, बम्बई की डायरेक्टर को बम्बई सेन्ट्रल जेल का अवलोकन करने तथा जेल में कैदी बनाई हुई स्त्रियों जिनमें देवम्मा एवं पुष्पा भी सम्मिलित हैं, उनसे साक्षात्कार करने तथा यह सुनिश्चित करने कि क्या उनके साथ अभिरक्षा के दौरान पुलिस द्वारा कोई यातना या दुर्व्यवहार किया गया है, अथवा नहीं, न्यायालय में 30 अगस्त, 1982 तक प्रतिवेदन प्रस्तुत प्रस्तुत करने के लिए कहा तथा राज्य सरकार तथा महानिरीक्षक, कैद को निर्देश दिया कि वे डॉ. देसाई को दिए गए कार्य में पूरी मदद करें। डॉ. देसाई ने बम्बई सेन्ट्रल जेल का निरीक्षण कर तथा बन्दी गृह में कैदियों से साक्षात्कार करने के बाद एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जिसमें बम्बई सेन्ट्रल जेल में बन्द स्त्री कैदियों द्वारा सामना करने वाली समस्याओं एवं कठिनाइयों को उजागर किया गया।

डॉ. देसाई की रिपोर्ट से दर्शित होता है कि सेन्ट्रल जेल में स्त्री कैदियों के लिए विधिक सहायता के उचित प्रबन्ध नहीं थे। रिपोर्ट में बताया गया कि बम्बई सेन्ट्रल जेल में दो स्त्री बन्दियों, जिनमें एक जर्मन राष्ट्र तथा दूसरी थाई राष्ट्र की थी, उनके साथ एक अधिवक्ता मोहन अजवानी द्वारा धोखा किया गया। उसने जर्मन राष्ट्र की महिला बन्दी के करीब आधे सामान को तथा थाई राष्ट्र की महिला के आभूषण को अपने पास फीस की अदायगी हेतु रख लिया तथा उनके सामान/आभूषण का दुर्विनियोग किया।

निर्णय :- उच्चतम न्यायालय ने डॉ. (मिस) ए. आर. देसाई द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अध्ययन करने के उपरान्त कहा कि न्यायालय ने अनेक अवसरों पर इंगित किया है कि गरीब या अकिंचन अभियुक्त जिन्हें गिरफ्तार किया गया है, जिनका जीवन तथा दैहिक स्वाधीनता खतरे में है, उनके लिए विधिक सहायता प्रदान करना न केवल संविधान के अनुच्छेद 39-क के तहत अनिवार्य आज्ञापत्र है वरन् संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 का संरक्षण भी उपलब्ध है। न्यायालय ने कहा कि किसी असहाय कैदी के बारे में कल्पना कीजिए जिसे जेल में बन्दी बनाया हुआ है, वह नहीं जानता कि उसे अपने सांविधानिक व विधिक अधिकारों के बचाव के लिए अथवा उसके विरुद्ध अभिरक्षा कर्ता द्वारा किए जाने वाले यातनापूर्ण एवं दुर्व्यवहार पूर्ण अथवा शोषण एवं सताये जाने वाले व्यवहार के विरुद्ध किसके पास मदद के लिए जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा यह भी सम्भव है कि वह अथवा उसके परिवारजन किसी अन्य परेशानी में हो, तथा उन्हें विधिक सहायता की आवश्यकता हो, लेकिन उसके जेल में बन्द होने के कारण उसके लिए अथवा उसके परिवारजनों के लिए मुश्किल हो सकता है कि वे विधिक सलाह अथवा सहायता प्राप्त कर सकें। अतः यह पूर्णरूपेण आवश्यक है कि जेल में बन्द कैदी को विधिक सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए, चाहे उनका परीक्षण चल रहा हो या दोषसिद्ध कैदी की स्थिति में है। न्यायालय ने कहा कि जेल में बन्द कैदी चाहे महिला हो अथवा पुरुष, दोनों को ही समान रूप से विधिक सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए

‘न्यायालय ने कहा कि अधिवक्ताओं को उन व्यक्तियों की सहायता के लिए पहुँचना चाहिए जो गरीब, अशिक्षित एवं अज्ञान हैं तथा वे जब किसी परेशानी में पड़ जाते हैं जैसे किसी अपराध कारित करने के आरोप में अथवा गिरफ्तार कर लिया गया हो, अथवा कारावास में हों, तो उन्हें पता नहीं होता कि वे किसके पास अपनी सहायता हेतु जाएँ। यदि अधिवक्ता उन्हें परेशानी से बचाने की जगह शोषण करता है, उन्हें लूटता है, तो विधिक व्यवसाय बदनाम हो जाएगा तथा देश के बहुसंख्यक लोग अधिवक्ताओं पर विश्वास करना छोड़ देंगे तथा यह प्रजातंत्र एवं विधि शासन के लिए विनाशकारी होगा।

न्यायालय द्वारा निर्देश :- न्यायालय ने महानिरीक्षक कैद, महाराष्ट्र को निर्देश दिया कि वह महाराष्ट्र में सभी पुलिस अधीक्षकों को एक सर्कुलर जारी करे, जिसमें यह अपेक्षित हो कि –

(क) जिला विधिक सहायता समिति को, जहाँ जेल स्थापित है, को परीक्षण के अधीन कैदियों की सूची भेजी जाये, जिसमें परीक्षण अधीन कैदी के जेल में प्रवेश, अपराध जिसका आरोप लगाया गया है तथा पुरुष एवं स्त्री कैदियों की संख्या अलग-अलग बतायी जाये।

(ख) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत संदेह के आधार पर गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों की सूची, जिन्हें 15 दिन से अधिक समय के लिए जेल में रखा गया है, जिला विधिक सहायता समिति को भेजी जाये।

(ग) सम्बन्धित जिला विधिक सहायता समिति द्वारा मनोनीत अधिवक्ताओं को जेल में प्रवेश करने की सुविधा प्रदान की जाये, तथा वे उन कैदियों से साक्षात्कार कर सकते हैं, जिन्होंने मदद की इच्छा अभिव्यक्त की है।

(घ) जेल के प्रमुख स्थानों पर नोटिस लगाये जाने चाहिए कि जिला विधिक सहायता समिति विशेष दिनों में जेल का अवलोकन करने आयेगी तथा कोई कैदी उनकी मदद लेना चाहता है, तो वह उससे मिल सकता है तथा उससे सलाह एवं सेवाएँ ले सकता है।

(ड) यदि कोई कैदी जिला विधिक सहायता समिति द्वारा मनोनीत अधिवक्ता से किसी मामले से सम्बन्धित विधिक सहायता हेतु साक्षात्कार करना चाहता है, तो ऐसा साक्षात्कार निगरानी में किया जायेगा, लेकिन जेल अधिकारियों द्वारा सुने जाने से अलग रखा जाएगा।न्यायालय ने कहा कि हमने जो निर्देश महानिरीक्षक (कैद) को दिए हैं, महाराष्ट्र राज्य विधिक सहायता एवं सलाह बोर्ड, जिलों की जिला विधिक सहायता समितियों को निर्देश देगा कि वे जिला न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले कुछ अधिवक्ता को मनोनीत करें कि वे 15 दिन में एक बार जिले में स्थित जेलों का अवलोकन करें कि उच्चतम न्यायालय एव महाराष्ट्र उच्च न्यायालय द्वारा कैदियों को जमानत के लिए आवेदन करने का अधिकार तथा विधिक सहायता का अधिकार उपयुक्त तथा प्रभावी रूप से कार्यान्वित किया जा रहा है तथा उन कैदियों से जिनके द्वारा विधिक सहायता प्राप्त की जा रही है तथा उन कैदियों से जिन्होंने अपनी विधिक सहायता प्राप्त करने की इच्छा अभिव्यक्त की है, उनसे साक्षात्कार किया जाए तथा उन्हें पैरोल पर जमानत पर छुड़वाने के लिए विधिक सहायता प्रदान की जाए। उन्हें न्यायालय में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील या रिवीजन आवेदन प्रस्तुत करने या उनकी अन्य समस्याओं के लिए, या उनके परिवार के सदस्यों की किसी भी समस्या के लिए उपयुक्त विधिक सहायता एवं प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए।

महाराष्ट्र राज्य, विधिक सहायता एवं सलाह बोर्ड, जिला विधिक सहायता समितियों से समय-समय पर प्रतिवेदन मांगेगा कि जो निर्देश उच्चतम न्यायालय ने दिए हैं, उन्हें उचित रूप से कार्यान्वित किया जा रहा है, तथा महाराष्ट्र राज्य विधिक सहायता एवं सलाह बोर्ड को निर्देश दिया जाएगा कि वह अधिवक्ता को जेल का प्रत्येक बार अवलोकन करने पर 25/- रुपये मानदेय भुगतान करे तथा न्यायालय से जेल तक जाने व आने का उचित यात्रा भत्ता भी दे। न्यायालय ने कहा कि इन निर्देशों को जिला विधिक सहायता की जगह उच्च न्यायालय विधिक सहायता समिति को प्रतिस्थापित (Substituting) करते हुए कार्यान्वित किए जायेंगे, क्योंकि बम्बई शहर में कोई जिला विधिक सहायता समिति नहीं है, लेकिन विधिक सहायता प्रोग्राम उच्च न्यायालय विधिक सहायता समिति द्वारा कार्यान्वित किए जाते हैं।

पिटीशनर, शीला वारसे ने पत्र के माध्यम से उच्चतम न्यायालय के सामने बन्दी गृह में स्त्री कैदियों की सुरक्षा, बचाव एवं उनके साथ पुलिस द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार एवं यातनाओं के विरुद्ध संरक्षण से संबधित मुख्य प्रश्न उठाया। न्यायालय ने पिटीशनर की ओर से पहल करने वाले अधिवक्ता तथा महाराष्ट्र राज्य को मामले की सुनवाई के दौरान अनेक सुझाव दिए। महाराष्ट्र राज्य ने न्यायालय को बन्दी गृह में महिलाओं से सम्बन्धित मार्गदर्शक सिद्धान्त अधिकथित करने तथा उनका पालन करने के लिए अपना पूरा सहयोग देने का प्रस्ताव रखा। उच्चतम न्यायालय ने मामले में महत्त्वपूर्ण संवाद होने के उपरान्त निम्नलिखित निर्देश प्रस्तावित किये –

1. हम निर्देश देते हैं कि इलाके में चार या पाँच पुलिस बन्दी गृह चुने जाने चाहिए, जहाँ सन्देहास्पद महिलाओं को रखा जाए तथा वहाँ महिला कांस्टेबल लगायी जानी चाहिए। सन्देहास्पद महिलाओं को ऐसी बन्दी गृहों में नहीं लाया जाना चाहिए जहाँ सन्देहास्पद पुरुषों को निरुद्ध किया गया है। महाराष्ट्र राज्य ने न्यायालय को बताया कि उसने पहले से ही तीन महिला कैदियों के रखने की जगह कर रखी है जहाँ महिला कांस्टेबलों को लगाया गया है तथा न्यायालय को दो अन्य महिला बन्दी गृहों को उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया।

2. महिला कैदियों से पूछताछ, महिला ऑफिसर्स / कांस्टेबल के सामने की जानी चाहिए।

3. जब कभी पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया जाता है, उसे तुरन्त सूचित किया जाना चाहिए कि उसे किस आधार पर गिरफ्तार किया जा रहा है तथा प्रत्येक गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को बताया जाना चाहिए कि वह जमानत के लिए योग्य है। विधिक सहायता एवं सलाह महाराष्ट्र राज्य बोर्ड गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के विधिक अधिकारों के बारे में पेमफ्लेट तैयार कर मराठी भाषा में जो जहाँ के लोगों की भाषा है उसकी पर्याप्त मात्रा में प्रतिलिपि प्रिंट करवायेगा तथा उसकी हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में भी प्रतिलिपि प्रिंट करवाये तथा तीनों भाषा में प्रिन्टेड प्रतिलिपियों को सभी पुलिस बन्दी गृह में चिपकाया जायेगा तथा गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को जैसे ही पुलिस स्टेशन लाया जाता है उसे, उसके द्वारा समझने वाली भाषा में पढ़कर सुनाया जायेगा।

4. जब भी पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर पुलिस बन्दी गृह में लाया जाता है, तो पुलिस गिरफ्तार किए जाने की सूचना नजदीकी विधिक सहायता समिति को देगी तथा ऐसी विधिक सहायता समिति गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को राज्य के खर्चे पर विधिक सहायता प्रदान करने हेतु तुरन्त कदम उठायेगी बशर्ते वह विधिक सहायता को स्वीकार करने का इच्छुक है। राज्य सरकार सम्बन्धित विधिक सहायता समिति को इस निर्देश को कार्यान्वित करने हेतु पर्याप्त कोष उपलब्ध करायेगी।

5. शहर की दीवानी न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा बम्बई शहर में एक शहर का सेशन जज मनोनीत किया जाये, जो शहर में पुलिस बन्दी गृहों का अचानक अवलोकन करे, ताकि गिरफ्तार व्यक्तियों को अपनी परेशानियों को बताने का अवसर मिल सके तथा पुलिस बन्दी गृहों की क्या दशाये हैं, आवश्यक सुविधाएँ उन्हें प्रदान की जा रही हैं अथवा नहीं एवं विधि के प्रावधानों की पालना की जा रही है अथवा नहीं तथा न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों को कार्यान्वित किया जा रहा है, आदि को सुनिश्चित किया जा सके। यदि निरीक्षण के परिणामस्वरूप यह पाया जाता है कि पुलिस प्राधिकारियों की ओर से कोई चूक है, तो शहर का सेशन जज, पुलिस कमिश्नर के ज्ञान में लायेगा और यदि आवश्यक हुआ तो गृह विभाग के ज्ञान में लाया जायेगा तथा यदि इससे भी मकसद हासिल नहीं होता है तो सेशन जज, महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को चूक के बारे में ध्यानाकर्षण करा सकता है। जिला स्तर पर पुलिस बन्दी गृह, जो जिला हैडक्वार्टर पर स्थित है, वहाँ इन निर्देशों को सेशन जज द्वारा कार्यान्वित किया जायेगा।

6. जैसे ही एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, पुलिस द्वारा उससे उसके किसी रिश्तेदार या मित्र का नाम लेना चाहिए, जिसको वह गिरफ्तार होने के बारे में सूचित करना चाहता है तथा पुलिस उस रिश्तेदार या मित्र से सम्पर्क बनाये रखेगी तथा उसे गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के बारे में सूचित करेगी।

7. मजिस्ट्रेट जिसके सामने गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को प्रस्तुत किया गया है, वह उसकी जाँच करेगा कि क्या उसे पुलिस अभिरक्षा के दौरान यातना अथवा दुर्व्यवहार पहुंचाये जाने की कोई शिकायत है तथा उसे सूचित करेगा कि उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 54 के तहत चिकित्सा परीक्षा कराने का अधिकार है। न्यायालय ने कहा कि हम जानते हैं कि निःसंदेह द.प्र.सं. की धारा 54 गिरफ्तार व्यक्ति की प्रार्थना पर मेडीकल प्रैक्टिशनर द्वारा चिकित्सकीय जाँच के बारे में प्रावधान करता है तथा यह गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अधिकार दिया गया है। लेकिन अधिकांशतः गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को इस अधिकार का ज्ञान नहीं होता तथा अपनी इस अज्ञानता के कारण वह इस अधिकार को प्रयोग में लाने में असमर्थ होता है, चाहे उसके साथ पुलिस बन्दी गृह में यातनाएँ अथवा दुर्व्यवहार ही क्यों न किया गया हो। अतः इस कारण ही हम यह विशिष्ट निर्देश दे रहे हैं तथा मजिस्ट्रेट के लिए यह आवश्यक है कि यह गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को सूचित करें कि उसे चिकित्सीय जाँच कराने का अधिकार है, यदि वह पुलिस अभिरक्षा के दौरान यातना पहुँचाने या दुर्व्यवहार कारित किए जाने की शिकायत करता है।

न्यायालय ने कहा कि निःसंदेह यदि इन निर्देशों को जिन्हें न्यायालय ने दिया है यदि उनको वास्तव में कार्यान्वित किया जाता है तो वे निश्चय ही पुलिस बंदी गृह में कैदियों के लिए पर्याप्त संरक्षण प्रदान करेंगे तथा उन्हें संभावित यातनाओं तथा दुर्व्यवहारों से बचाएंगे।

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