विधि के स्रोत (Sources of Law)-

सामण्ड ने विधि के स्रोतो को दो भागों में बाँटा है-

1) औपचारिक स्रोत(Formal Source)

2) भौतिक स्त्रोत(Material Sources)

1) औपचारिक स्रोत (Formal Source)

ऐसे स्रोत है जिनसे कानून अपनी विधिमान्यता प्राप्त करता है या जो किसी नियम को कानूनी मान्यता देता है। सामण्ड के अनुसार राज्य ही विधि का औपचारिक स्रोत है।

2)भौतिक स्रोत (Material Source)

ऐसे स्रोत जिनसे विधि अपनी विधिमान्यता प्राप्त नहीं करती बल्कि वह तत्व प्राप्त करती है जिससे वह बनती है।

ये दो प्रकार के होते हैं-

1) विधिक स्रोत

ii) ऐतिहासिक स्रोत

1) विधिक स्रोत– वे स्रोत जिन्हें विधि खुद के द्वारा विधिक स्रोत मानती है या जिनसे कानूनी नियमों का निर्माण होता है। जैसे- विधायन (Legislation), प्रथा (Customs), पूर्वनिर्णय (Precedents)

ii) ऐतिहासिक स्रोत:- ऐसे स्रोत जिन्हें न्यायालय मान्यता नहीं देते और जिन्हें बन्धनकारी शक्ति तो प्राप्त नहीं होती लेकिन ये पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करते हैं। जैसेधर्म, नैतिकता या लेखको के विचार

(1) रूढ़ि (Customs) :-

आमतौर पर प्रथा वे नियम है जो एक विशेष परिवार, व्यक्तियों के विशेष वर्ग या विशेष स्थान में बहुत समय के प्रयोग से कानूनी मान्यता प्राप्त कर चुके हैं।

परिभाषा (Definition)

ऑस्टिन– प्रथा एक नियम है जो किसी परिवार या किसी जिला विशेष में बहुत दिनों की परंपरा के कारण बनने की शक्ति से संपन्न होती है।

हॉलैंड– प्रथा एक ऐसा व्यवहार है जो सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है।

आवश्यक तत्व (Elements) :-

विधि के रूप में मान्यता प्राप्त होने के लिए प्रथा में इन तत्वों का होना जरूरी है-

1) प्राचीनता (Antiqiuity)– प्राचीन रिवाज में कानून की शक्ति होती हो। न्यायालय किसी प्रथा को विधि की मान्यता तभी देते हैं जब वह लंबे समय से प्राचीन हो। भारत में किसी प्रथा को विधिक मान्यता देने के लिए उसका प्राचीन होना जरूरी है और वह इतनी प्राचीन होनी चाहिए कि मनुष्य की स्मरण शक्ति उसके आगे ना जा सके।

2) निरंतरता (Continuity)– किसी भी प्रथा को कानूनी मान्यता प्राप्त होने के लिए जरूरी है कि उसका प्रयोग लगातार होना चाहिए। अगर यह साबित कर दिया जाए कि किसी प्रथा के प्रचलन को किसी रुकावट के कारण बीच में ही छोड़ दिया गया था तो इसे कानूनी रूप नहीं दिया जा सकता।

3) शांतिपूर्ण उपभोग (Peaceful Enjoyment)- प्रथा को कानून होने के लिए जरूरी है कि उसका प्रयोग लोगों के द्वारा शांतिपूर्वक और बिना रुकावट के किया जाता रहा हो अगर यह साबित हो जाए कि किसी प्रथा का प्रयोग शांतिपूर्ण ढंग से लगातार नहीं हुआ है तो उसको कानूनी मान्यता नहीं मिल सकती।

4) निश्चितता (Certainty)- एक प्रथा कितनी ही प्राचीन क्यों ना हो, उसके साथ निश्चित और स्पष्ट भी होनी जरूरी है। निश्चितता विधिमान्य कानून की एक जरूरी शर्त है।

केस- गुरुस्वामी राजा बनाम पीरुमल राजा (1925)- पड़ोसी के खेतों के ऊपर लटकती हुई पेड़ों की डालियो की छाया को पड़ने देने के लिये प्रथागत सुखभोग की मांग की गई। न्यायालय ने कहा कि छाया इतनी अनिश्चित है कि इस आधार पर कोई भी प्रथा नहीं हो सकती।

5) संगतता (Consistency)- एक प्रथा को किसी दूसरी प्रथा के विरोध में नहीं होना चाहिए। एक प्रथा जो दूसरी प्रथा के परस्पर विरोध में है उसको मान्यता नहीं दी जा सकती। इन दोनों में से किसी एक के लिए यह कहना कि कौन बेतुका है, आसान नहीं है।

ब्लैकस्टोन के अनुसार यह मामले के पक्षकारों पर छोड़ देना चाहिए कि वह साबित करें कि किसको न्यायालय द्वारा मान्यता दी जाए।

6) युक्तियुक्तिता (Reasonableness)– प्रथा को विधिमान्य होने के लिए युक्तियुक्त होना चाहिए न्यायालय ऐसी किसी भी प्रथा को लागू नहीं करेगा जो युक्तियुक्त नहीं है। न्यायालय के सामने प्रथा की युक्तियुक्तिता का प्रश्न विधि का प्रश्न है।

केस- प्रोड्यूस ब्रोकर कंपनी बनाम ओलंपिया ऑयल एंड कोक कंपनी (1916)- न्यायालय ने कहा कि युक्तियुक्त वही है जो एक ईमानदार और शुद्ध मस्तिष्क का व्यक्ति, उचित और उपयुक्त स्वीकार करता है।

7) विधानों के अनुकूल (Conformity with statutes)– एक प्रथा को विधिमान्य होने के लिए यह जरूरी शर्त है कि उसे विधायिका के किसी अधिनियम के विरोध में नहीं होना चाहिए। एक संविधि के माध्यम से प्रथा को समाप्त किया जा सकता है और उसे निष्प्रभावी बनाया जा सकता है। भारत में अनेक प्रथाएं जैसे बाल विवाह, सती प्रथा आदि को कानून के द्वारा समाप्त कर दिया गया है।

8) नैतिकता के अनुकूल (Conformity with morality)– प्रथा को नैतिकता के विरुद्ध नहीं होना चाहिए नहीं होना चाहिए। आज भी सामान्य नियम है कि कोई प्रथा जो नैतिकता के विरुद्ध है उसे लागू नहीं किया जाएगा उदाहरण- अल्पवयस्को को वेश्यावृत्ति के लिए प्रेरित किये जाने की प्रथा।

प्रथा या रूढ़ि के प्रकार-

रूढि विधि के स्रोत के रूप में उन नियमों से बनती है जो ना तो विधायिका द्वारा पारित की जाती है ना ही प्रशिक्षित न्यायाधीशों द्वारा बनाई जाती है बल्कि इनकी उत्पत्ति लोकप्रिय जनमत द्वारा होती है जो लंबे चलन का परिणाम होती है और सभी प्रथाएं जो विधि का बल रखती है वे दो प्रकार की होती हैं-

1) विधिक प्रथा

2) अभिसम्यात्मक प्रथा

विधिक प्रथा या रूढ़ि (Legal custom)- जो विधि का बल स्वतंत्र रूप से रखती है और उन पक्षकारों द्वारा किए गए करार पर निर्भर नहीं करती जो प्रथा या रूढ़ि से बाध्य होते हैं। दूसरे शब्दों में विधिक प्रथा वह प्रथा होती है जो विधि के एक बाध्यकारी नियम के रूप में स्वयं लागू होती है। ऐसी प्रथा का विधि प्राधिकार पूर्ण होता है। विधिक प्रथाओं का आधार स्वतंत्र होता है। यह विधि के एक आबद्धकर नियम के रूप में लागू होती हैं।

ये प्रथाएं दो प्रकार की होती हैं-

क) स्थानीय प्रथाएं (Local customs)- जब किसी प्रथा का चलन किसी क्षेत्र विशेष में होता है और उसका पालन क्षेत्र विशेष के ही लोग करते हैं तो उसे हम स्थानीय प्रथा कहते हैं। इसका एक निश्चित क्षेत्र में प्रचलन होता है और केवल उस क्षेत्र में विधि के स्रोत के रूप में यह कार्य करती है। हेल्सबरी के अनुसार प्रथा एक अलिखित विधि है जो स्थान विशेष के लिए ही विशिष्ट होती है लेकिन स्थानीय प्रथाओं को स्वीकार या अंगीकार करने के लिए न्यायालय ने कई प्रकार की शर्तें लगा रखी है।

स्थानीय प्रथाएं भी दो प्रकार की होती है-

ⅰ) भौगोलिक स्थानीय प्रथाएं।

ii) स्थाई व्यक्तिगत प्रथाएं।
ख) सामान्य प्रथाएं (General customs)– वे है जो एक वर्ग विशेष या एक समुदाय विशेष पर लागू होती है लेकिन ये एक स्थानीय क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं होती। सामान्य प्रथा एक राज्य के सभी क्षेत्रों में लागू होती है और राज्य की सामान्य विधि का एक स्रोत होती है। स्टीफेन के अनुसार सामान्य प्रथा के विधिमान्य होने के लिए न्यायालय द्वारा वैधता की मोहर लगाना जरूरी है।

अभिसम्यात्मक प्रथा (Conventional customs)- एक अभिसम्यात्मक प्रथा वह है जिसका प्राधिकार उसके स्पष्ट या विकसित रूप में किसी करार के अंतर्गत संयुक्त होने पर निर्भर करता है। ऐसा करार दो या दो से ज्यादा पक्षकारों के बीच होना चाहिए जिससे वे अपने पारस्परिक संबंध को विनियमित करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में यह एक ऐसी प्रथा है जिसकी शक्ति सशर्त है। उस शर्त को प्रथा के पक्षकारों द्वारा किए गए करार में स्वीकार किया जाता है। ऐसी रूढ़िया संविदा में निश्चित रूप से शामिल की गई शर्तों पर आधारित होती है। इनकी उत्पत्ति पक्षकारों के बीच के करार से होती है। उदाहरण के तौर पर माल विक्रय से संबंधित नियम, पराक्रमय लिखत से संबंधित नियम, अभिकरण से संबंधित नियम आदि, ऐसी प्रथाएं है। ये प्रथाएं भी विधिक प्रथाओं की तरह ही पूरे राज्य में प्रचलित हो सकती हैं या उसके बाहर भी इनका क्षेत्र सीमित हो सकता हैं।

प्रथा कब कानून का रूप धारण करती है:- ऑस्टिन के अनुसार प्रथा कानून का रूप तब प्राप्त करती है जब राज्य उसे कानून के रूप में मान्यता देता है। ऑस्टिन के अनुसार प्रथागत कानून का मतलब केस लॉ है। इस तरह कोई भी प्रथा कानून का बल तब तक प्राप्त नहीं कर सकती जब तक कि न्यायालय द्वारा उन्हें लागू ना किया हो।

कानून के स्रोत के रूप में प्रथा का महत्व:- कानून के विकास में प्रथा हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही है। हर व्यक्तिगत विधि में प्रधाओं का काफी महत्व है। भारतीय संवैधानिक विधि में समान सिविल संहिता पर जोर दिया गया है जिससे प्रथा का महत्व समाप्त हो जाएगा। इसलिए आज के समय में विधि के स्रोत के रूप में प्रथा का महत्व घटता जा रहा है।

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