1. मुस्लिम विधि का आधार:-

मुस्लिम-विधि ‘अल कुरान’ पर आधारित है, जिसका अस्तित्व मुसलमान आदिकाल से अल्लाह की सत्ता में मानते हैं तथा इसे मानव के समक्ष प्रस्तुत करने वाले मुहम्मद साहब को ‘रसूल अल्लाह’ अर्थात् अल्लाह का दूत (Messenger of God) मानते हैं। इसकी आयतें, जो इन्सान को उनके अन्तिम पैगम्बर (पैगम्बर मोहम्मद) के द्वारा ज्ञात हुई ‘कलामे अल्लाह’ (ईश्वर के वचन) तथा निश्चायक समझी जाती हैं। धर्म और अध्यात्म के अतिरिक्त कुरान में विधिशास्त्र भी अन्तर्विष्ट है जो ‘शरअ’ का मुख्य आधार है। कुरान अल- फुरकान है अर्थात् यह असत्य से सत्य को और अनुचित से उचित को दर्शाता है।’कुरान’ अल्लाह द्वारा पैगम्बर साहब को सम्बोधित संवादों के एक क्रम के रूप में है। ये संवाद जनता के सामने पैगम्बर साहब के पैगम्बर बनने के बाद तेईस वर्षों के दौरान भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रकट किये गये और उनमें ज्यों-ज्यों प्रश्न उठते गये, उन सभी समस्याओं का समाधान कुरान में निहित है। परन्तु जब कभी किसी विषय पर कुरान मौन है तो सुन्नत अथवा “सुन्नाह” (अर्थात्, जो कुछ पैगम्बरसाहब ने कहा, किया या जिसकी उन्होंने अव्यक्त अनुमति दी थी) और “हदीस (अर्थात् पैगम्बर साहब कीउक्तियों या कार्यों का वर्णन अथवा अव्यक्त अनुमोदन) से सहायता ली जाती है। मुसलमानों के द्वारा ये सबकुरान के अनुपूरक समझे जाते हैं और उसी कोटि के हैं

2. पैगम्बर साहब से पहले:-

‘ऐयामे-जाहिलिया -मोहम्मद साहब के पैगम्बर होने के पहले इस्लामी कानून का कोई अस्तित्व नहीं था और अरब-निवासी जातियों को कोई सामान्य विधि नहीं थी। वे कबीलों में बटे हुए थे। प्रत्येक कबीले का एक मुखिया (Chief) या सरदार हुआ करता था, जिसका चुनाव प्रायः साहस ज्ञान और कुलीनता (High descent) के आधार पर किया जाता था। प्रत्येक कबीले का अपना निजी कानून होता था और झगड़े मुखिया या तलवार द्वारा तय किये जाते थे। अरब के कबीलों में आपस में युद्ध हुआ करते थे। अरब में मूर्ति पूजा का प्रचलन था, बहुविवाह हुआ करते थे तथा अरब समाज खानाबदोश (घरहीन तथा भ्रमणशील था। अरब में लोगों के दो वर्ग थे- प्रथम वर्ग उन लोगों का था जो रेगिस्तानी खानाबदोश थे, और बददू(Beduins) के नाम से जाने जाते थे, दूसरा वर्ग शहर के निवासियों का या जो मुख्यतः व्यापारी थे तथा व्यवस्थित जीवन व्यतीत करते थे। किन्तु किसी वर्ग के समाज में व्यवस्थित विधि प्रशासन का अस्तित्व नहीं था। संक्षेप में, अरबों का सामाजिक जीवन अपने कबीले के नियमों तथा दूसरे कबीलों के भय, दबाव तथा व्यवहार से व्यवस्थित होता था, कबीलों में प्रायः पारस्पारिक युद्ध हुआ करते थे। एक कबीले के सदस्य दूसरे कबीले के सदस्य को जान से मार देते थे। यदि किसी कबीले का कोई आदमी दूसरे कबीले के किसी सदस्य द्वारा मार दिया जाता था तो दूसरे कबीले का मुखिया अपराधी को समर्पण के लिये कहता था, जिससे हत्या का दण्ड दिया जा सके। बालिकाओं की हत्या भी साधारण बात थी। स्त्रियों को कानूनी अधिकार प्रदान नहीं किये गये थे और उन्हें वस्तुतः पशुओं की तरह सम्पति ही समझा जाता था। पुरुष का व्यवहार भी उनके प्रति कदाचित् हो मानवीय होता था। नियमित विवाद उस समाज में अज्ञात थे। तत्कालीन अरव समाज में पुरुष एवं महिलाओं के मध्य कुछ ऐसे अनैतिक सम्बन्ध प्रचलित थे जिन्हें वास्तविक अर्थों में वैवाहिक सम्बन्ध का दर्जा नहीं दिया जा सकता इस्लाम के प्रारम्भ में मुता (अस्थायी विवाह) का प्रचलन था जिसे पैगम्बर मुहम्मद साहब ने भी सहन किया, लेकिन बाद में पैगम्बर साहब ने मुता को निषिद्ध घोषित कर दिया। मेहर विवाह के लिये आवश्यक तो था लेकिन पत्नी को न मिलकर पत्नी के पिता या भाई या उसके किसी संरक्षक को दिया जाता था। पत्नी विवाह की संविदा में स्वतन्त्र पक्षकार नहीं होती थी। बालिकाओं का क्रय-विक्रय हुआ करता था और उनके संरक्षक उनकी सहमति के बिना और उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह किसी भी व्यक्ति के साथ कर सकते थे।सम्पत्ति के सम्बन्ध में स्थिति यह थी कि एक मुसलमान अपनी पूर्ण सम्पत्ति वसीयत के माध्यम से अन्तरित कर सकता था। उत्तराधिकार से स्त्रियाँ अपवर्जित (वंचित थीं और पुरुष उत्तराधिकारियों में भी केवल पुत्र, पिता, पितामह, भाई, चचेरा भाई ही सम्पत्ति प्राप्त करते थे, अर्थात् कुल के पुरुष वंशजों एवं पूर्वजों के अतिरिक्त अन्य किसी भी सम्बन्धी को, चाहे वह कितना ही निकटस्थ हो, उत्तराधिकार से सम्पत्ति नहीं मिलती थी। अरब निवासी स्वतन्त्रता प्रेमी थे और साथ-साथ साहसी भी थे।ऐसे अव्यवस्थित समाज में पैगम्बर मुहम्मद समाज सुधारक के रूप में आये और लोगों में इस्लाम धर्म काप्रचार किया। मुस्लिम विधि का जन्म इस्लाम के अभ्युदय से हुआ।अरबी समाज को इस दशा में इस्लाम ने सुधार किया और समाज की काया पलट दी। स्वयं अरब वालों ने इस परिवर्तन का इतना बोध किया कि वे मुहम्मद साहब के इस दुनिया में तशरीफ लाने के पहले के समय को “ऐयाम इल जाहिलिया’ अर्थात् ‘अज्ञान का काल’ कहने लगे।

3. इस्लाम का इतिहास:-

पैगम्बर और इस्लाम का अभ्युदय:– ऐसा कहा जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब मक्का में सन् 570 ईसवी में पैदा हुए। उनके पिता का नाम अब्दुल्ला और माँ का नाम आमिना था। उनके जन्म के पूर्व ही उनके पिता की मृत्यु हो गयी और छः वर्ष की बाल्यावस्था में ही उनकी माँ का भी देहावसान हो गया। माँ की मृत्यु के पश्चात् उनके पितामह अब्दुल मुत्तलिब ने उनका पालन-पोषण किया। परन्तु दो वर्ष पश्चात् उनके पितामह की भी मृत्यु हो गयी और तत्पश्चात् उनका लालन-पालन उनके चाचा अबू तालिब ने किया। बचपन से ही मोहम्मद साहब गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति थे और अपना अधिकांश समय चिन्तन में ही लगाया करते थे। पच्चीस साल की उम्र के बाद उन्होंने अपना अधिक समय ‘हिरा’ नाम की एक गुफा में एकान्तवास में बिताना शुरू किया, जहाँ वे प्रार्थना और चिन्तन में लगे रहे और चालीस साल की उम्र में उन्हें दैवी सन्देश (वा) मिलना प्रारम्भ हो गये अर्थात् वे पैगम्बर हो गये। तभी से उन्होंने अपने देशवासियों में धार्मिक प्रचार करना आरम्भ कर दिया।

मोहम्मद साहब का मक्का से मदीना चले जाना (अर्थात् हिजरत ) – सन् 622 ई० में मोहम्मद साहब मक्का से मदीना चले गये। मोहम्मद साहब का मक्का से चले जाना ही हिज्रा कहलाता है। सन् 622 ई० से मुस्लिम युग (हिज्री संवत) का आरम्भ हुआ। मदीना में उनके उपदेशों से लोग काफी प्रभावित हुए और उनके अनुयायियों की संख्या नित्यप्रति बढ़ती गयी। अब अनादर, आभासी असफलता और अपूर्ण भविष्यवाणी के तेरह वर्ष समाप्त हुए और सफलता के दस वर्ष आरम्भ हुए। पैगम्बर साहब के धर्म प्रचार की कथा में हिजा एक स्पष्ट विभाजक है। हिज्रा के पूर्व तक वे एक प्रचारक मात्र थे, पर उसके बाद वे एक राज्य के शासक हो गये, जो दस वर्ष में अरब का साम्राज्य हो गया। पैगम्बर मोहम्मद के व्यक्तित्व का प्रभाव अरबवासियों पर इतना अधिक पड़ा कि थोड़े समय में अधिकांश अरबवासियों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। पैगम्बर मोहम्मद की मृत्यु सन् 632 ई० में हुई।

इस्लाम क्या है? – पैगम्बर साहब के कथनानुसार वाणी की निर्मलता और आतिथ्य (Hospitality) ही इस्लाम है, धैर्य और नेकी ही दीन या आस्था (faith) है। नेकी से सुख और बदी से दुख का बोध ही दीन का लक्षण है तथा जिस कार्य को करने में अपने ही चित्त को चोट पहुँचे वही पाप है।

इस्लाम और उसका अर्थ (Islam and its significance ) — धार्मिक भाव में इस्लाम से तात्पर्य अल्लाह की इच्छा के लिये आत्मसमर्पण कर देना है और धर्म निरपेक्ष भाव में इस्लाम का अर्थ शांति की स्थापना है। ‘सलामा’ धातु, जिससे ‘इस्लाम’ शब्द बना है, का तात्पर्य है धैर्य रखना, विश्रान्त रहना, अपना कर्तव्य पालन करना, ऋणों का भुगतान करना, पूर्णतया अक्षुब्ध रहना और परम मित्र को अपने को समर्पित कर देना। इस्लाम का अर्थ होता है-शांति, अभिवादन (Greeting), सुरक्षा और मोक्ष (Salvation)

इस्लाम के उपदेश (The Teaching of Islam):- कुरान के उपदेश यह स्पष्ट करते हैं कि इस्लामसंसार के आरम्भ से अस्तित्व में है और प्रलय (कयामत) के दिन तक इसका अस्तित्व रहेगा। मोहम्मद साहब धर्म को मनुष्य द्वारा पालन योग्य एक सीधा और स्वाभाविक कानून समझते थे, जिसमें कि कोई पेचीदगी यासंदिग्धता नहीं थी। इस्लाम में इन्सानों के बन्धुत्व की भावना है। इस्लाम की यह मान्यता है कि अल्लाह ने ही उन सबको पैदा किया है। वह उन सब को बराबर समझता है। इन्सान के स्वार्थ से उत्पन्न साम्प्रदायिक भावनाऔर अन्य अवरोध दूर कर दिये गये हैं और धर्म के आधार पर किये गये विभाजन (तकसीमें) उचित नहीं माने जाते हैं और धर्म की शिक्षा हर प्रकार की गुटबन्दी के विरुद्ध है। पैगम्बर मोहम्मद ने लोगों को बताया किश्रेष्ठता कर्म में रहती है। इस प्रकार एक मुसलमान के लिये जीवन का अन्तिम उद्देश्य प्राप्त करने के संघर्ष में यह बड़ा संसार सहकारिता के लिये महान क्षेत्र है। इस्लाम प्रथमतः कर्तव्यशीलता का मजहब है। मानव सेवा और परोपकार ही विशेष रूप से अल्लाह की सेवा और उपासना है। जो इन्सान पर मेहरबानी नहीं करता, उस पर अल्लाह भी मेहरबानी नहीं करेगा।

मोहम्मद साहब के देहावसान (परदा करने) के बाद:-मोहम्मद साहब की मृत्यु के बाद खिलाफत (खलीफा पद) के लिये कई उम्मीदवार हुए, जिसकी वजह से जनता कई परस्पर विरोधी दलों में बंट गई। परन्तु ऐसा होते हुए भी प्राधिकृत लोगों ने ‘सुन्नत’ और ‘हदीस’ को हाथों-हाथ सुरक्षित रखा और कुरान में उल्लिखित सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विषयों से सम्बद्ध प्रश्नों पर उनका प्रयोग किया। यद्यपि ‘सुत्रत’ और ‘हदीस’ तब तक अभिलेखबद्ध (Recorded) नहीं किये गये थे, तो भी समय-समय पर विवादों को हल करने और पैगम्बर साहब द्वारा वर्जित कार्यों को करने से लोगों को रोकने के लिये उनके उत्तरजीवी साक्षियों द्वारा उनका हवाला दिया जाता था और समय बीतने पर वे न्यायिक अवधारण (Judicial determination) के प्रमाण बन गये।यद्यपि सभी मुसलमान कुरान को अल्लाह का कलाम (ईश्वर की वाणी) मानते हैं, तो भी भिन्न टीकाकारों द्वारा उसके सारवान् भागों के विरोधी निर्वचनों, निष्ठा (Faith) के नियमों के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं और कुछ उलेमाओं द्वारा किसी विशेष हदीस के स्वीकार या अस्वीकार करने के कारण या किसी विशेष मनुष्य के इमाम होने से मतभेद की वजह से भिन्न सिद्धान्तों और भिन्न सम्प्रदायों का अभ्युदय हुआ। मुसलमानों में दो प्रमुख सम्प्रदाय शिया और सुन्नी हैं, जिनमें से प्रत्येक की भी कई उपशाखायें हैं, जिनका विस्तृत विवेचन चतुर्थ अध्याय में किया जायेगा। इतने फिरकों के होते हुए भी मुसलमान में कोई जाति-भेद नहीं है।

खिलाफत – पैगम्बर मोहम्मद साहब का देहावसान सन् 632 ई० में हुआ। उनके कोई पुत्र न था। उनके देहावसान (परदा करने) के पश्चात् उत्तराधिकार के प्रश्नों को लेकर मुस्लिम समुदाय दो गुटों में विभक्त हो गया। एक गुट का नेतृत्व पैगम्बर साहब की पुत्री फातिमा कर रही थीं। इस गुट (जो कि शिया शाखा कहलाता हैं) का मत था कि पैगम्बर साहब का उत्तराधिकारी उनके परिवार के किसी व्यक्ति को होना चाहिये और इसलिये पैगम्बर साहब के दामाद (फातिमा के पति और उनके चचेरे भाई ‘खलीफा’ पद के हकदार हैं। दूसरे गुट (सुन्नी गुट) के अनुसार मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी (खलीफा) का निर्वाचन होना चाहिये। बहुसंख्यक मुस्लिम इस गुट के समर्थक थे। अबू बक्र, जो हजरत आयशा (पैगम्बर मोहम्मद साहब की पत्नी थी) के पिता थे, प्रथम खलीफा हुए। परन्तु दो वर्ष पश्चात् सन् 634 ई० में इनकी मृत्यु हो गयी, तत्पश्चात् उमर दूसरे खलीफा निर्वाचित किये गये। सन् 644 ई० में इनकी हत्या कर दी गयी। तत्पश्चात् उस्मान तीसरे खलीफा के रूप में चुने गये। सन् 656 ई० में इनकी भी हत्या कर दी गयी। तब अली, जो कि मोहम्मद साहब की पुत्री फातिमा के पति थे खलीफा हुए। अली की हत्या भी सन् 661 में हो गयी और उनका स्थान उनके पुत्र हसन ने ग्रहण किया। हसन ने दमिश्क के एक अनुचित अधिकारी मुआविया के पक्ष में अपने पद से इस्तीफा दे दिया, फिर भी उनकी हत्या कर दी गयी। अली के समर्थकों ने हसन के भाई हुसैन को मुआविया के पुत्र यजीद के प्रति विद्रोह करने के लिये सहमत किया, लेकिन वे भी कर्बला के मैदान में विश्वासघाती व्यक्तियों के द्वारा बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गये।

ओमेदिया राजघराना (Umaiyad’s Dynasty ) :-मोआविया ने ओमेदिया राजघराना स्थापित किया, जिसने दमिश्क में सन् 661 ई० से 750 ई० तक शासन किया। दमिश्क को राजधानी बनाया गया। इस प्रकार उमय्यद वंश ने शासन किया तथा खिलाफत बादशाहत में परिवर्तित हो गयी। उमय्यद वंश के हाथ में शासन आने के कारण शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना हुई। मक्का और मदीना के लोग ईश्वर विद्या तथा विधिशास्त्र की रचना कर रहे थे, फलस्वरूप मक्का और मदीना, इस्लामी कानून और विधिशास्त्र के केन्द्र बने ।

अब्बासी राजघराना (Abbasi Dynasty ) – ओमेदियों के बाद अब्बासियों ने बगदाद को अपनीराजधानी बनाकर कई वर्षों तक शासन करके अन्त में सन् 1517 ई० में तुर्कों के सुल्तान सालेम प्रथम के पक्ष मेंगद्दी छोड़ दी।

आटोमन राजघराना (Ottoman Dynasty ) — सन् 1538 ई० में तुर्की के सुल्तान ने खलीफा की पदवी ग्रहण की। सन् 1924 ई० में मुस्तफा कमाल पाशा के द्वारा खलीफा की पदवी समाप्त कर दी गई।

भारत में मुस्लिम शासन-काल-

मुस्लिम शासन-काल में इस्लामी कानून ही भारत का कानून था और वैयक्तिक कानून (Personal Law) को छोडकर इसके सभी प्रावधान, जैसे संविदा विधि, दाण्डिक विधि, अपकृत्य विधि आदि हिन्दुओं और मुसलमानों पर एक समान लागू होते थे। मुगल शासन काल में भारत में हनफी इस्लामी विधि लागू रही जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के दौरान क्रमशः समाप्त हुई । यद्यप इस्लामिक दाण्डिक विधि कुछ आगे तक चली किन्तु यह दाण्डिक विधि सन् 1860 में भारतीय दण्ड के अधिनियमन के साथ समाप्त हो गयी।

अंग्रेजों के समय एवं तत्पश्चात् –

भारत में सन् 1772 के विनियम (Regulation) संख्या 11, धारा 27 के द्वारा यह अधिनियमित किया गया है कि दाय (Inheritance), उत्तराधिकार (Succession), विवाह और जातीय तथा अन्य धार्मिक रिवाजों और संस्थाओं से सम्बन्ध रखने वाले सब मामलों में मुसलमानों के ऊपर कुरान की विधियों और हिन्दुओं के ऊपर शास्त्र की विधियाँ लागू की जायेंगी। कम्पनी के विनियमों द्वारा समय-समय पर संशोधित मुस्लिम दण्ड विधि केवल मुसलमानों पर ही नहीं बल्कि अंग्रेजी साम्राज्य में भारत वर्ष के सब धर्मावलम्बियों पर भी लागू की गई। अन्य मामले, जैसे संविदा आदि न्यायाधीशों के सद्विवेक पर छोड़ दिये गये जिसे न्याय, साम्या और सद्विवेक नाम दिया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक भारत में सभी इस्लामी लोक कानून अधिनियमों द्वारा समाप्त कर दिये गये और केवल मुसलमानों पर ही अनुप्रयोज्य वैयक्तिक इस्लामी कानून ही बचा।

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