:-भारत का संविधान एक पवित्र दस्तावेज है। इसमें विश्व के प्रमुख संविधानों की विशेषतायें समाहित हैं। यह संविधान निर्मात्री सभा के 2 वर्ष 11 माह 18 दिन के सतत् प्रयत्न, अध्ययन, विचार-विमर्श, चिन्तन एवं परिश्रम का निचोड़ है। इसे 26 जनवरी, 1950 को सम्पूर्ण भारत पर लागू किया गया।

:-भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

(1) विशालतम संविधान – सामान्यतया संविधानों का आकार अत्यन्त छोटा होता है। संविधान में मोटी-मोटी बातों का उल्लेख कर दिया जाता है और अन्य बातें अर्थान्वयन के लिए छोड़ दी जाती हैं। लेकिन भारत का संविधान इसका अपवाद है। भारत के संविधान का आकार न तो अत्यधिक छोटा रखा गया है और न ही अत्यधिक बड़ा। इसमें सभी आवश्यक बातें समाहित करते हुए इसे संतुलित आकार का रखा गया है।संविधान के मूल प्रारूप में 22 भाग, 395 अनुच्छेद तथा 9 अनुसूचियाँ थीं। कालान्तर में संशोधनों के साथ-साथ इनमें अभिवृद्धि होती गई।

सर आइवर जेनिंग्स के शब्दों में, “भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है।” आलोचक इसे ‘वकीलों का स्वर्ग’ कहकर सम्बोधित किया था

(1) विशालतम संविधान – सामान्यतया संविधानों का आकार अत्यन्त छोटा होता है। संविधान में मोटी-मोटी बातों का उल्लेख कर दिया जाता है और अन्य बातें अर्थान्वयन के लिए छोड़ दी जाती हैं। लेकिन भारत का संविधान इसका अपवाद है। भारत के संविधान का आकार न तो अत्यधिक छोटा रखा गया है और न ही अत्यधिक बड़ा। इसमें सभी आवश्यक बातें समाहित करते हुए इसे संतुलित आकार का रखा गया है।

संविधान के मूल प्रारूप में 22 भाग, 395 अनुच्छेद तथा 9 अनुसूचियाँ थीं। कालान्तर में संशोधनों के साथ-साथ इनमें अभिवृद्धि होती गई।

सर आइवर जेनिंग्स के शब्दों में, “भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है।” आलोचक इसे ‘वकीलों का स्वर्ग’ कहकर सम्बोधित किया था।

(2) सर्वप्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना – हमारे संविधान का प्रमुख लक्षण ‘सर्वप्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ (Sovereign Dernocratic Republic) की स्थापना है। इसे सर्वप्रभुत्व सम्पन्न इसलिए कहा गया है क्योंकि इसकी सम्प्रभुता किसी विदेशी सत्ता में निहित नहीं होकर भारत की जनता में निहित हैं। यह बाहरी नियंत्रण से अब पूर्णतया मुक्त है। अपनी आन्तरिक एवं को बाहरी नीतियों का निर्धारण एवं नियंत्रण स्वयं भारत ही करता है।

भारत में ‘लोकतंत्र’ (Democracy) की स्थापना की गई है। यहाँ का शासन का जनता के हाथों में सुरक्षित है। यह प्रजातंत्र की इस कसौटी पर खरा उतरता है कि. यहाँ सरकार जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा संचालित है। इसका मुख्य इस उद्देश्य लोक कल्याण है।

(3) समाजवाद एवं धर्म निरपेक्षता– हमारा संविधान ‘समाजवाद’ उप (Socialism) एवं ‘धर्म निरपेक्षता’ (Secularism) का पोषक है। यह राष्ट्रपति महात्मा गाँधी के समाजवादी समाज की संरचना के स्वप्न को साकार करता है। इसकी प्रस्तावना में ही “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय” (Social, Economic and Political Justice) का आह्वान किया गया है। यह सभी प्रकार के विभेदों को समाप्त कर समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों के अध्ययन से निकाल कर साधारण संवैधानिक अधिकार के रूप में प्रतिस्थापित करना समाजवादी स्वरूप की पुष्टि करता है।

संविधान में प्रत्येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय (Social, Economic and Political Justice) का वचन दिया गया है। (नन्दिनी सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2839 ) । हमारा संविधान एक धर्म निरपेक्ष संविधान का भी संवाहक है। इसमें सभी धर्मों को समान मान्यता प्रदान की गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है। यह किसी भी व्यक्ति पर राजधर्म नहीं थोपता है।

उल्लेखनीय है कि अभिव्यक्ति समाजवाद एवं धर्म निरपेक्षता संविधान के मूल प्रारूप में समाहित नहीं थी। इसे संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है।

(4) संसदीय शासन पद्धति का प्रादुर्भाव – भारत राज्यों का एक संघ है। यहाँ का संविधान संघात्मक है। संघात्मक संविधान भी दो प्रकार का होता है- अध्यक्षात्मक एवं संसदीय अध्यक्षात्मक शासन पद्धति में राष्ट्रपति सर्वेसर्वा होता है, जैसे कि अमेरिका में है। जबकि संसदीय शासन पद्धति में शासन की वास्तविक बागडोर जनता में निहित होती है। सरकार जनता की, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाई जाती है। जन प्रतिनिधि मंत्रिपरिषद् के रूप में शासन का संचालन करते हैं।

भारत में संसदीय शासन पद्धति (Parliamentary Forip of Government ) को अंगीकृत किया गया है। यहाँ शासन की वास्तविक सत्ता जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों के हाथों में सुरक्षित है। राष्ट्रपति देश का मुखिया अवश्य है लेकिन नाम मात्र का। यह मंत्रिपरिषद् की सलाह से ही सारे कार्य करता है।

(5) मूल अधिकार – भारत के संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता एवं उपलब्धि इसमें ‘मूल अधिकारों (Fundamental Rights) का समाहित होना है। वर्षों से दासता के अधीन रहे भारतवासियों के लिए यह मूल अधिकार एक वरदान एवं उपहारस्वरूप हैं। इन मूल अधिकारों का मुख्य उद्देश्य भारत के नागरिकों को सर्वांगीण विकास के अवसर उपलब्ध कराना है। संविधान के भाग तीन में नागरिकों के निम्नांकित मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है-

(1) समता का अधिकार,

(2) स्वातंत्र्य अर्थात् स्वतंत्रता का अधिकार,

(3) प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण,

(4) गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण,

(5) शोषण के विरुद्ध अधिकार,

(6) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार,

(7) संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, तथा

(8) संवैधानिक उपचारों का अधिकार ।

उल्लेखनीय है कि सम्पत्ति का अधिकार पहले एक मूल अधिकार था, लेकिन कालान्तर में संशोधन द्वारा इसे एक संवैधानिक अधिकार मात्र बना दिया गया।

स्वतंत्रता का अधिकार अपने-आप में एक महत्त्वपूर्ण मूल अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत नागरिकों की निम्नांकित स्वतंत्रताओं का विवेचन कियागया है-

(i) वाक अभिव्यक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,

(ii) शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन की स्वतंत्रता;

(iii) संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता;

(iv) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण करने की स्वतंत्रता;

(v) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता तथा

(vi) कोई वृत्ति, उप जीविका, व्यापार या कारवार करने की स्वतंत्रता,

(6) मूल कर्तव्य – भारतीय संविधान के मूल प्रारूप में ‘मूल कर्त्तव्यों’ का उल्लेख नहीं था संविधान में मूल अधिकार तो जोड़ दिये गये लेकिन मूल कर्तव्य रह गये। कालान्तर में संविधान में मूल कर्तव्यों को जोड़ने की आवश्यकता महसूस की गई। इसी का परिणाम है कि संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा एक नया भाग 4क अन्तःस्थापित कर अनुच्छेद 51क में निम्नांकित मूल कर्तव्य (Fundamental Duties) समाहित किये गये-

भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-(क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वजों औ राष्ट्रगान का आदर करे,

(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उचआदर्शों को हृदय में संजोये रखे और उनका पालन करे,

(ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे,

(घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे,

(ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के समान अधिकार के विरुद्ध है,

(च) हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे। और उसका परिरक्षण करे,

(छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे,

(ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना काविकास करे,

(झ) सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे,

(ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले ।

(7) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व– हमारे संविधान निमांताओं ने एक ऐसे संविधान की संरचना की परिकल्पना की थी जो मानव मात्र के लिए कल्याणपरक हो संविधान निर्माता यह चाहते थे कि राज्य अपनी नीतियों का निर्धारण इस प्रकार करे कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर ऊँचा उठे, बालकों को निःशुल्क शिक्षा मिले, अर्थाभाव के कारण कोई भी व्यक्ति न्याय से वंचित न रहे. समान कार्य के लिए सभी को समान वेतन मिले, वृद्धावस्था एवं रुग्णावस्था में आर्थिक सम्बल दिया जाये, सत्ता का अधिकाधिक विकेन्द्रीकरण हो आदि। इन कल्याणक उपबंधों की क्रियान्विती अनिवार्य न बनाकर राज्यों के आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता पर छोड़ दी गई। यही कारण है कि इन्हें मूल अधिकारों की संज्ञा नहीं देकर राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों (Directive Principles of State Policy) के नाम से सम्बोधित किया गया।

संविधान के भाग में इन नीति निदेशक तत्त्वों का उल्लेख किया गया है यद्यपि इन नीति निदेशक तत्त्वों को लागू करना राज्य के लिए आबद्धकर नहीं है, लेकिन एक कल्याणकारी राज्य के नाते राज्यों का यह नैतिक दायित्व बन जाता है कि वे इन्हें अधिकाधिक लागू करें।

अब तो न्यायपालिका के ऐसे अनेक विनिर्णय आ गये हैं जो इन नीति निदेशक तत्त्वों को भी मूल अधिकारों का दर्जा देते हैं।

(8) कठोरता एवं लचीलेपन का समन्वय – यदि यह कह दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संशोधन की दृष्टि से भारत का संविधान न अधिक कठोर है और न ही अधिक लचीला हमारे संविधान की ऐसी प्रक्रिया को अंगीकृत ” किया गया है जो न तो इंग्लैण्ड की भाँति अत्यधिक लचीली है और न अमेरिका की भाँति अत्यधिक कठोर। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप इसमें संशोधन किये जाने का प्रावधान किया गया है। यह इस बात का प्रमाण है कि सन् 2001 तक इसमें केवल 85 संशोधन हुए हैं।

(9) वयस्क मताधिकार:-जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं. भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अंगीकृत किया गया है। संसदीय शासन प्रणाली में सत्ता जनता न द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में सुरक्षित रहती है। जनता द्वारा ही जन प्रतिनिधियों का निर्वाचन किया जाता है। संविधान के अन्तर्गत निर्वाचन का यह अधिकार ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किया गया है जो वयस्क है अर्थात् जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है।संविधान के अनुच्छेद 326 के अन्तर्गत वयस्क मताधिकार (Adult suffrage) की संज्ञा दी गई है। एक विशेष बात यह है कि मताधिकार के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति लिंग आदि के आधार पर कोई विभेद नहीं किया गया है यह भारत के संविधान की एक अनूठी विशेषता है।

(10) न्यायपालिका की स्वतन्त्रता:-न्यायपालिका लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। यही नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा प्रहरी है। संविधान की रक्षा का दायित्व भी न्यायपालिका पर ही है ऐसी न्यायपालिका का स्वतंत्र होना अपरिहार्य है। यह सुखद है कि संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्रता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को संविधान का आधारभूत ढाँचा माना गया है जिसके साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।

(11) एकल नागरिकता:-हमारे संविधान की एक और अनुपम विशेषता – इसमें एकल नागरिकता का प्रावधान है। यहाँ का प्रत्येक नागरिक भारत का नागरिक (Citizen of India) कहलाता है। वह अमेरिका की भाँति दोहरी नागरिकता का दावा नहीं कर सकता।

(12) सत्ता का विकेन्द्रीकरण:- भारत का संविधान सत्ता के विकेन्द्रीकरण (Decentralisation of powers) में विश्वास रखता है। यह सत्ता किसी एक व्यक्ति के हाथों में केन्द्रीकृत न होकर जनता के हाथों में सन्निहित है। पंचायती राज व्यवस्था इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा इसे और अधिक सुदृढ़ बनाया गया है।

(13) आरक्षण — संविधान में सामाजिक, शैक्षिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान (103वाँ संशोधन) अधिनियम, 2019 द्वारा आर्थिक दृष्टि से पिछड़ेसवर्णों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार भारत का संविधान एक अनूठा एवं विलक्षण संविधान है। इसे विश्व के आदर्श संविधानों में से एक की संज्ञा दी जा सकती है।

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